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तान  : स्त्री० [सं०√तन् (विस्तार)+घञ्] १. तनने या तानने अथवा किसी ओर खिंचे हुए होने या खींचे जाने की अवस्था या भाव। २. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के अंगों को कस या खींचकर आपस में मिलाये रखती हो और उन्हें एक दूसरे से अलग न होने देती हो। जैसे–पलंग, हौदे आदि में अन्दर की ओर मजबूती के लिए लगाये हुए लोहे के छड़ तान कहलाते हैं। ३. नदी या समुद्र की तरंग या लहर जो नावों को किसी एक ओर ले जाती है। ४. कोई ऐसी चीज या बात जिसका ज्ञान इंद्रियों से होता है। पद–तान की जान=किसी चीज या बात का मूल तत्त्व या सार। ५. कंबल बुनने के समय उसमें लगनेवाला ताना (गडेरिए) ६. संगीत में गाने-बजाने का वह अंग जिसमें सौन्दर्य लाने के लिए बीच-बीच में कुछ स्वरों को खींचते हुए अर्थात् अधिक समय तक उतार-चढ़ाव के साथ उच्चारण करते हुए कलात्मक रूप से उनका विस्तार किया जाता है। विशेष–आज-कल व्यवहारतः गवैयों में दो प्रकार की तानें प्रचलित है। एक तो हलक (या गले) की तान जो बहुत ही स्पष्ट रूप से गले से निकली या ली जाती है और जो विशेष अभ्यास-साध्य होती है। दूसरी जबड़े की तान जिसमें गले पर बहुत थोड़ा जोर पड़ता है और उसलिए जो निम्न कोटि की मानी जाती है। क्रि० प्र०–लगाना। मुहावरा–तान उड़ाना–यों ही मन में मौज आने पर कुछ गाने लगना। तान छोड़ना–संगीत का अभ्यास न होने पर भी तान लेते हुए गाना। (व्यंग्य) (किसी पर) तान तोड़ना-किसी को अपने क्रोध, रोष, व्यंग्य आदि का लक्ष्य बनाना। तान लगाना या लेना-कलात्मक ढंग से गाते हुए स्वरों के उतार-चढ़ाव आदि का विस्तार करना। पुं० [?] एक प्रकार का पेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तान-तरंग  : स्त्री० [ष० त०] संगीत में, कलात्मक रूप से होनेवाला अनेक प्रकार की तरंगो का उपयोग या प्रयोग।
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तान-बान  : पुं०=ताना-बाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तानना  : स० [सं०√तन् (विस्तृत करना या फैलना)] १. किसी वस्तु के एक या अनेक सिरों को इस प्रकार उपयुक्त दिशा या दिशाओं में खींचना कि उसमें किसी प्रकार का झोल, बल या सिकुंड़न न रह जाय। जैसे–(क) ताना तानना, रस्सी तानना। (ख) छाया आदि के लिए चँदोआ तानना। २. कोई चीज ठीक तरह से खड़ी करने के लिए अथवा खड़ी की हुई वस्तु को गिरने से रोकने के लिए उसे कई ओर से रस्सियों आदि से खींचकर बाँधना। जैसे–(क) खेमा या तंबू तानना। (ख) रामलीला में मेघनाद, रावण आदि के कागजी पुतले तानना। ३. किसी प्रकार का खिंचाव उत्पन्न करनेवाली कोई क्रिया करना। जैसे–भौंहें तानना। ४. आघात, प्रहार आदि करने के लिए कोई चीज ऊपर उठाना। जैसे–डंडा, मुक्का या लाठी तानना। ५. कोई चीज किसी दूसरी चीज के ऊपर फैलाना। जैसे–सोते समय शरीर पर चादर तानना। मुहावरा–तान कर सोना-किसी बात से बिलकुल निश्चित हो जाना। किसी प्रकार की आशंका, चिंता या भय से रहित होकर रहना। ६. किसी को हानि पहुँचाने या दंड देने के अभिप्राय से कोई बात उपस्थित या खड़ी करना। ७. बलपूर्वक किसी ओर पहुँचाना, प्रवृत्त करना या भेजना। जैसे–अदालत में उन्हें साल भर के लिए तान दिया, अर्थात् जेल भेज दिया। ८. किसी व्यक्ति को ऐसा परामर्श देना कि वह दूसरे की ओर प्रवृत्त न हो या उससे मेल-जोल की बात न करे। जैसे–आप ने ही उन्हें तान दिया,नहीं तो अब तक समझौता हो जाता।
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तानपूरा  : पुं० [सं० तान+हिं० पूरना] सितार के आकार का पर उससे कुछ बड़ा एक प्रसिद्ध बाजा जिसका उपयोग बड़े-बड़े गवैये गाने के समय स्वर का सहारा लेने के लिए करते हैं।
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तानव  : पुं० [सं० तनु+अण्] तनु अर्थात् कुश होने की अवस्था या भाव। तनुता।
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तानसेन  : पुं० मुगल अकबर के दरबार का प्रसिद्ध गवैया बिलोचन मिश्र जो संगीतज्ञ स्वामी हरिदास का शिष्य था और जिसे अकबर ने तानसेन की उपाधि से विभूषित किया था, और जो अन्त में मुहम्मद गोंस नामक मुसलमान फकीर से दीक्षित हो मुसलमान हो गया था। मध्य तथा आधुनिक युग में वह भारत का सर्वश्रेष्ठ गायक माना जाता है। उसकी कब्र ग्वालियर में है।
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ताना  : पुं० [हिं० तानना] १. तानने की क्रिया या भाव। २. तनी या तानी हुई वस्तु। ३. करघे की बुनाई में वे सूत या तागे जो लंबे बल में ताने जाते हैं। विशेष–जो सूत या तागे चौड़ाई के बल बुने जाते हैं, उन्हें ‘बाना’ कहते है। क्रि० प्र०–तानना।–फैलाना।–लगाना। पद–ताना-बाना (दे०)। ३. कालीन, दरी आदि बुनने का करघा। स० [हिं० ताव+ना (प्रत्यय)] १. आग से अथवा किसी और प्रक्रिया से किसी चीज को खूब गरम करना। तपाना। जैसे–(क) तंदूर ताना। (ख) घी या मक्खन ताना। २. परीक्षा करने के लिए धातुओं आदि का तपाना। ३. किसी को दुःखी या संतप्त करना। स० [हिं० तवा] गीली मिट्टी या आटे से ढक्कन चिपकाकर किसी बरतन का मुँह बंद करना। मूँदना। पुं० [अ० तअनऽ] ऐसा कथन जिसमें किसी को उसके द्वारा किए हुए अनुचित या अशोभनीय व्यवहार का उसे स्पष्ट किंतु कटु शब्दों में स्मरण कराकर लज्जित किया जाय। क्रि० प्र०–देना।–मारना।
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ताना-पाई  : स्त्री० [हिं० ताना+पाई=ताने का सूत फैलाने का ढांचा] १. पाइयों पर ताना तानने या फैलाने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार पाइयों पर फैलाए हुए ताने को बार-बार इधर-उधर आ जा कर कूची आदि से साफ करना तथा सीध में लाना। ३. बार-बार इधर-उधर आना-जाना।
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ताना-बाना  : पुं० [हिं० ताना+बाना] बुनाई के समय लंबाई के बल ताने या फैलाये जानेवाले और चौड़ाई के बल बुने जानेवाले सूत। मुहावरा–ताना-बाना करना-बार-बार इधर-उधर आना-जाना।
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ताना-रीरी  : स्त्री० [हिं० तान+अनु० रीरी] साधारण गाना।
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तानाशाह  : पुं० [हिं० तनना या तानना+फा० शाह] १. अब्दुल हसन नामक स्वेच्छाचारी बादशाह का लोक प्रसिद्ध नाम। २. ऐसा शासक जो मनमाने ढंग से सब काम करता हो और किसी प्रकार के नियम या बंधन न मानता हो। ३. ऐसा व्यक्ति जो अपने अधिकारी का बहुत दुरुयोग करता हो।
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तानाशाही  : स्त्री० [हिं० तानाशाह] तानाशाह होने की अवस्था या भाव। मनमाना आचरण या शासन करने की वृत्ति। स्वेच्छाचारी।
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तानी  : स्त्री० [हिं० ताना] उन सब सूतों, तागों का समूह जो करघे आदि में कपड़ा बुनते समय लंबाई के बल लगाये जाते है। स्त्री०=तनी (बंद)।
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तानूर  : पुं० [सं०√तन् (विस्तार)+ऊरण्] १. पानी का भँवर। २. वायु का भँवर। चक्रवात बवंडर।
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तानो  : पुं० [देश०] ऐसा भूखंड जिसमें कई खेत होते हैं। चक।
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तान्द  : पुं० [सं० तनु+अञ्, गुणाभाव] १. पुत्र। बेटा। २. तनु नामक ऋषि के पुत्र एक प्राचीन ऋषि।
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