शब्द का अर्थ
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बिंदु :
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पुं० [सं०√विद् (विभक्त करना)+उ] १. पानी या किसी तरल पदार्थ की बूँद। कतरा। २. किसी पदार्थ का बहुत ही छोटा कण। ३. लेख आदि की बिंदी। सून्य। सिफर। ४. बहुत ही छोटा गोलाकार अंकन या चि्ह्र। ५. ज्यामिति में उक्त प्रकार का वह अंकन या चिन्ह जिसके विभाग न हो सकते हों। ६. लेखन आदि में उक्त प्रकार की वह बिंदी जो अनुस्वार की सूचक होती है। ७. प्रेमी या प्रेमिका के शरीर पर दाँत गड़ाकर किया जानेवला क्षत। दंत-क्षत। ८. भौहों और ललाट के बीचोबीच का स्थान। ८. नाटक में अर्थ-प्रकृति की पाँच स्थितियों में से दूसरी जिसमें कोई गौण घटना आदि उसी प्रकार बढ़कर प्रधान या मुख्य घटना के समान जान पड़ने लगती है, जिस प्रकार पानी पर गिरी हुई तेल की बूँद फैलकर उस पर छा जाती है। १॰. योग में अनाहत नाद के प्रकाश का व्यक्त रूप। स्त्री०=बेंदी (गहना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
बिंदु-तंत्र :
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पुं० [सं० ष० त०] १. चौसर आदि खेलने की बिसात और पासा। २. गेंद। |
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बिंदु-देव :
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पुं० [सं० ष० त०]=शिव। |
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बिंदु-पत्र :
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पुं० [सं० मध्य० स०] भोजपत्र। |
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बिंदु-फल :
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पुं० [उपमि० स०] मोती। |
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बिंदु-बिब :
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पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का चित्तीदार हिरन। |
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बिंदु-रेखक :
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पुं० [सं० ब० स० कप्०] १. अनुस्वार। २. एक तरह का पक्षी। |
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बिंदु-रेखा :
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स्त्री० [सं० ष० त०] वह रेखा जो बिन्दुओं केयोग से बनी हो जैसे...। |
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बिंदुक :
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पुं० [सं० बिंदु+कन्] १. बूँद। २. बिंदी। |
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बिंदुकित :
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भू० कृ० [सं० बिंदुक+इतच्] जिस पर बिंदु लगे या लगाये गये हों। |
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बिंदुरी :
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स्त्री०=बिंदी। |
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बिंदुली :
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स्त्री०=बिंदी। |
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बिंदुवासर :
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पुं० [सं० ष० त०] वह दिन जिसमें स्त्री को गर्भाधान हुआ हो। |
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