शब्द का अर्थ
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आख :
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थू-पद— [अनु०] १. खखार या खाँसकर मुँह से कफ थूखने का शब्द। २. किसी को धिक्कारते हुए उसे परम निंदनीय सिद्ध करने के लिए कहा जाने वाला पद। |
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आखंडल :
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पुं० [सं० आ√खण्ड (भेदन करना)+डलच्] इंद्र। |
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आखंडलीय :
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वि० [सं० आखंडल+छ-ईय] इंद्र-संबंधी। इंद्र का। |
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आखत :
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पुं० [सं० अक्षत, प्रा० अक्खत] १. मांगलिक अवसरों पर पूजा आदि के काम में आनेवला कच्चा चावल जिसमें प्रायः दही या गीली रोली मिली रहती है। २. शुभ अवसरों पर ब्राह्मणों को दिया जानेवाला निमंत्रण जिसमें प्रायः उक्त चावल से उन्हें तिलक लगाया जाता है। ३. उक्त अवसरों पर नाइयों, भाटों बाजेवालों आदि को दिया जानेवाला निमंत्रण और बिदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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आखता :
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वि० [फा० आख्तः] (पशु) जिसका अंडकोश निकाल दिया गया हो। बधिया किया हुआ। |
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आखन :
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अव्य० [सं० आ+क्षण] प्रतिक्षण। हर समय। |
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आखना :
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स० [सं० आख्यान, पा० अक्खान, पं० आखना] १. किसी से कोई बात कहना। उदाहरण—तोहिं सेवा बिछुरन नहि आखौं। पीजर हिए घालि तोहिं रखौ। जायसी। अ० [सं० आकांक्षा] इच्छा करना। चाहना। स० [हिं० आँख] देखना। |
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आखनिक :
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वि० [सं० आ√खन्(खोदना)+इकन्] खोदनेवाला। पुं० १. वह व्यक्ति जो खोदता हो। जैसे—खान में काम करनेवाला व्यक्ति। २. चूहा, सूअर आदि पशु जो जमीन खोदते रहतें हैं। ३. खोदने के औजार या करण। |
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आखर :
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पुं० [सं० अक्षर, प्रा० अक्खर] १. अक्षर। वर्ण। उदाहरण—एको आखर पढ़यौ नाहिं।—कबीर। २. शब्द। ३. वचन। मुहावरा—आखर देना=वचन देना। वादा करना। पुं० [सं० आखनिक] कुदाली। पुं० [१] अस्तबल। |
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आखा :
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वि० [सं० अक्षय, प्रा० अक्खय] १. समूचा। सारा। २. कुल। समस्त। पुं० दे० ‘खुरजी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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आखा नवमी :
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स्त्री० =अक्षय नवमी। |
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आखात :
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पुं० [सं० आ√खन्+क्त] १. जमीन आदि खोदना। खनन। २. जमीन खोदने का कोई औजार या करण। जैसे—कुदाल या खंता। ३. समुद्र का खाड़ी। (गल्फ) |
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आखातीज :
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स्त्री० [सं० अक्षय तृतीया, प्रा० अख्खयतइज्ज० गुं० अखत्रीज, का० अखित्रद] वैशाख सुदी तीज। अक्षय तृतीया। |
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आखिर :
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वि० [फा० आखिर] १. बाद में या पीछे होनेवाला। २. अंत में होनेवाला। अंतिम। पुं० १. अंत। २. नतीजा। परिणाम। फल। अव्य० अंत में। अंततोगत्वा। |
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आखिरकार :
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अ०भ० [फा०आखिरी] सब के अंत में होनेवाला। अंतिम। |
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आखिरी :
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पुं० [फा० आखिरी] सब के अंत में होनेवाला। अंतिम। |
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आखीर :
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पुं० [फा० आखिर] अंत। समाप्ति। |
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आखु :
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पुं० [सं० आ√खन्+डु] १. चूहा। २. जंगली चूहा। ३. चोर। ४. सूअर। ५. देवदार वृक्ष। वि० १. खोदनेवाला। २. कृपण। कंजूस। |
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आखु-कर्णी :
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स्त्री० [ब० स०ङीष्] मूसाकरणी नामक लता। |
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आखेट :
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पुं० [सं० आ√खिट (भय)+घञ्] [कर्त्ता आखेटक] पशुपक्षियों को पकड़ने अथवा मारने के उद्देश्य से उनका पीछा करना। मृगया। शिकार। |
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आखेटक :
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पुं० [सं० आखेट+कन्] १. आखेट। शिकार। २. [आ√खिट्+ण्वुल्-अक] आखेट या शिकार करनेवाला। अहेरी। शिकारी। |
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आखेटिक :
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वि० [सं० आखेट+ठक्-इक] १. (पशु या व्यक्ति) जो शिकार करने में दक्ष हो। २. भयंकर। भीषण। पुं० १. निपुण या सिद्धहस्त शिकारी। २. शिकारी कुत्ता। |
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आखेटी (टिन्) :
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वि० [सं० आखेट+इनि] [स्त्री० आखेटिनी]-आखेटक। |
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आखोट :
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पुं० [सं० अक्षोट] अखरोट का वृक्ष और उसका फल। |
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आखोर :
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पुं० [तु० आखुर] १. वह चारा जो जानवर के खा चूकने के बाद बच रहता है। २. निकम्मी, रद्दी या सड़ी-गली चीजें। कूड़ा-करकट। वि० १. गला-सड़ा। २. निकम्मा और रद्दी। ३. गंदा। पद—आखोर की भरती=(क) निकम्मी या रद्दी चीजों का ढेर। (ख) व्यर्थ के लोगों का जमावड़ा। |
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आख्ता :
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वि० [फा० आख्तः] (पशु) जिसके अंडकोश काट या निकाल दिये गये हों। बधिया। |
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आख्या :
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स्त्री० [सं० आ√ख्या (कहना)+अङ्-टाप्] [वि० आख्यात] १. नाम। संज्ञा। २. कीर्ति। यश। ३. किसी को सूचित करने के लिए किसी कार्य या घटना का विवरण लिखना या लिखाना। |
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आख्यात :
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वि० [सं० आ√ख्या(कथन)+क्त] १. कहा या जतलाया हुआ। २. बहुत अधिक प्रसिद्ध। पुं० व्याकरण में क्रिया पद। |
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आख्यातव्य :
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वि० [सं० आ√ख्या+तव्यत्] जो कहे जाने, वर्णन किए जाने अथवा सूचित किये जाने के योग्य हो अथवा किया जाने को हो। |
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आख्याता (तृ) :
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वि० [सं० आ√ख्या+तृच्] १. कहनेवाला। २. सूचना देने या विवरण बतालनेवाला। |
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आख्याति :
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स्त्री० [सं० आ√ख्या+क्तिन्] १. किसी से कुछ कहने अथवा उसे सूचित करने की क्रिया या भाव। २. ख्याति या प्रसिद्धि। |
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आख्यातिक :
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पुं० [सं० आख्यात+ठक्-इक] वह ग्रंथ जिसमें क्रियाओं का विवेचन किया ख्याति गया हो। |
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आख्यान :
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पुं० [सं० आ√ख्या+ल्युट्-अन] १. कहने या सूचित करने की क्रिया या भाव। २. वह जो कुछ कहा जाए। वर्णन। वृत्तांत। ३. नाटक में किसी पात्र का पिछली या पुरानी घटनाओं से लोगों को अवगत कराना। ४. पिछली या पुरानी घटना का किया हुआ वर्णन या विखा हुआ विवरण। कथा। ५. उपन्यास का एक प्रकार जिसमें उपन्यासकार पात्रों से कुछ न कहलवाकर स्वयं सब बातें कहता चलता है। |
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आख्यान-पट :
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पुं० [सं० ष० त०] चित्र कला में वह पट या लंबा खर्रा जिसपर किसी कथा आदि की भिन्न भिन्न घटनाएँ क्रम से अंकित होती है। (पेन्टेड स्कोल) |
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आख्यानक :
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पुं० [सं० आख्यान+कन्] छोटा आख्यान। |
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आख्यानकी :
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स्त्री० [सं० आख्यानक+नीष्] दंडक वृत्त का एक भेद जिसके विषम चरणों में त, त० ज० तथा दो गुरु और सम चरणों में ज,त०ज तथा दो गुरु होते हैं। यह इंद्रवज्रा और उपेद्रज्रा के योग से बनती है। |
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आख्यापक :
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पुं० [सं० आ√ख्या +णिच्, पुक्+ण्वुल्-अन] [स्त्री० अध्यापिकी] १. वह जो कोई बात घोषित अथवा सूचित करे। २. संदेहशवाहक। दूत। |
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आख्यापन :
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पुं० [सं० आ√ख्या (कहना)+णिच्,पुक्,ल्युट्-अन] १. कोई कथा, घटना या विवरण दूसरों से कहना। २. घोषित करना। |
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आख्यायिका :
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स्त्री० [सं० आ√ख्या+ण्वुल्-अक+टाप्] १. शिक्षाप्रद कल्पित लघु कथा। २. एक प्रकार का लघु आख्यान जिसमें पात्र कुछ —कुछ या कहीं कही अपनी चरित्र अपने मुँह से भी कहते है। |
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आख्येय :
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वि० [सं० आ√ख्या+यत्] जो कहे जाने अथवा सूचित किये जाने के य़ोग्य हो अतवा किया जाने के योग्य हो। |
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