शब्द का अर्थ
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आहार :
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पुं० [सं० आ√हृ+घञ्] १. भोजन करना। २. खाने की सामग्री या वस्तु। खाद्य पदार्थ। भोजन। |
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आहार-मंडप :
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पुं० [सं० ष०त०] किसी विशाल भवन का वह बड़ा कमरा जिसमें अतिथियों, मित्रों आदि को भोज दिये जाते हों। (बैन्क्वेंटिंग हाँल) |
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आहार-विज्ञान :
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पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान जिसमें खाद्य पदार्थों के गुण-दोष,पोषक तत्त्व आदि का विवेचन होता है। (डायटेटिक्स) |
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आहार-विहार :
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पुं० [सं० द्व० स०] नित्यप्रति के शारीरिक कार्य या व्यापार और व्यवहार। जैसे—खान-पीना, काम-करना, हँसना-बोलना सोना आदि। |
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आहारक :
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वि० [सं० आ√हृ+ण्वुल्-अक] अपने पास लानेवाला। पुं० जैन शास्त्रानुसार वह उपलब्धि जिसमें मुनिराज अपनी शंका के समाधान के लिए हस्त-मात्र शरीर धारण कर तीर्थकारों के पास उपस्थित होते हैं। |
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आहारशास्त्र :
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पुं० =आहार-विज्ञान। |
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आहारिक :
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वि० [सं० आहार+ठक्-इक] आहार या भोजन संबंधी। पुं० जैनों में आत्मा के पाँच प्रकार के शरीरों में से वह जो मनुष्य के आहार विहार आदि का कर्ता और भोक्ता है। |
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आहारी (रिन्) :
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वि० [सं० आहार+इनि] [स्त्री० आहारिणी] आहार (भोजन) करनेवाला। जैसे—मांसाहारी, शाकाहारी आदि। |
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आहार्य्य :
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वि० [सं० आ√हृ+ण्यत्] १. हरण किये जाने के योग्य। २. आहार (भोजन) किये जाने के योग्य। ३. बनावटी। कृत्रिम। ४. दिखौआ। ५. पूज्य। पुं० १. अभिनय का वह विशिष्ट प्रकार जो विशेष प्रकार की वेष-भूषा धारण करके किया जाता है। २. साहित्य में चार प्रकार के अनुभवों में से एक जिसमे नायक और नायिका एक दूसरे का वेष धारण करके विहार करते हैं। ३. वैद्यक में, ऐसा रोग जिसे अच्छा करने के लिए चीर-फाड़ या शल्य-चिकित्सा की आवश्यकता हो। |
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आहार्य्याभिनय :
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पुं० [सं० आहार्य-अभिनय कर्म०स०] अभिनय का वह अंश जो रूप, वेष आदि पर आश्रित हो। आहार्य्य। |
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