| शब्द का अर्थ | 
					
				| इंद्र					 : | वि० [सं०√इन्द्र+र] ऐश्वर्य या विभूतिवाला। वैभवशाली। २. प्रधान, मुख्य या श्रेष्ठ। पुं० १. एक प्रसिद्ध वैदिक देवता जो बहुत तेजस्वी शक्तिशाली तथा अंतरिक्ष या आकाश, पूर्व दिशा, ज्येष्ठा नक्षत्र और वर्षा के स्वामी माने गये हैं। परवर्ती काल में ये देवताओं और स्वर्ग के राजा भी मान लिये गये थे। विशेष—कहते हैं कि देवताओं के शिल्पी त्वष्टा ने इन्हें वज्र नाम का सोने का एक अस्त्र बनाकर दिया था जिसका प्रहार कभी व्यर्थ नहीं जाता था और जिससे इन्होंने बड़े-बड़े राक्षसों को परास्त किया था। विद्युल्लता भी इनका एक दूसरा अस्त्र कहा गया है। वैदिक काल में ही गंधर्वों के साथ इनका घनिष्ट संबंध माना जाता था, जिससे आगे चलकर पौराणिक युग में ये बहुत कामुक और विषय-भोगी माने जाने लगे थे और स्वर्ग के राजा माने जाने के कारण उनके संबंध में यह भी प्रसिद्ध हो गया था कि किसी को तप करते देखकर ये समझने लगते थे कि कहीं यह मेरा सिंहासन तो नहीं छीनना चाहता। श्रीकृष्ण से इनकी स्पर्धा प्रसिद्ध है, क्योंकि वज्र के जो गोप पहले इंद्र-याग किया करते थे, उन्हें कृष्ण ने ऐसा करने से रोका था। इसलिए व्रज पर इंद्र का कोप हुआ था। पर वहाँ भी इन्हें कृष्ण से परास्त होना पड़ा था। मुहावरा—इंद्र का आसन डोलना या हिलना=इंद्र (अथवा किसी बहुत वैभवशाली शक्ति संपन्न व्यक्ति) के मन में यह आशंका या भय होना कि कहीं मेरा अधिकार या प्रभुत्व छिन तो नहीं जायेगा। पद—इंद्र का अखाड़ा=(क) इंद्र की राज्य सभा जहाँ अप्सराओं का जमघट रहता और नाच-रंग होता था। (ख) नाच-रंग का ऐसा स्थल जहाँ बहुत सी सुन्दर स्त्रियाँ एकत्र हों। इंद्र की परी-बहुत ही सुन्दरी स्त्री। २. अधिपति। राजा। ३. बादल। मेघ। ४. बिजली। विद्युत। ५. ज्येष्ठा नक्षत्र जिसके स्वामी इंद्र माने गये हैं। ६. बारह आदित्यों में से एक आदित्य का नाम। ७. एक प्राचीन विद्वान जो व्याकरण के पहले आचार्य माने गये है। ८. ज्योतिष में एक योग। ९. छप्पय नामक छंद का एक भेद। १. रात। रात्रि। ११. दाहिनी आँख की पुतली। १२. एक प्रकार का वानस्पतिक विष। १३. कुटज नामक पौधा। १४. चौदह की संख्या। | 
			
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				| इंद्र सभा					 : | स्त्री० [ष० त०] १. स्वर्ग में इंद्र का दरबार, जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि वहाँ परियाँ नाचती हैं। २. बहुत ही सुन्दर, सजा हुआ और भोग-विलास की सारी सामग्री से युक्त कोई भवन या स्थान। | 
			
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				| इंद्र-कील					 : | पुं० [ष० त०] १. हिमालय पर्वत की वह चोटी जहाँ अर्जुन ने नये शस्त्रास्त्र प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। २. कुछ लोगों के मत से मंदर या मंदार पर्वत का दूसरा नाम। | 
			
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				| इंद्र-कृष्ट					 : | वि० [तृ० त०] (ऐसा प्रदेश) जिसमें खेती-बारी मुख्यतः वर्षा के सहारे होती है। | 
			
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				| इंद्र-गिरि					 : | पुं० [मध्य० स०] महेन्द्र पर्वत। | 
			
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				| इंद्र-गोप					 : | पुं० [ब० स०] बीरबहूटी नाम का कीड़ा। | 
			
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				| इंद्र-चाप					 : | पुं० [ष० त०] इंद्र धनुष। | 
			
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				| इंद्र-जव					 : | पुं० =इंद्र जौ। | 
			
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				| इंद्र-जाल					 : | पुं० [ष० त०] [वि० ऐंद्रजालिक] १. कोई ऐसा अद्भुत, आकर्षण तथा भ्रम में डालनेवाला काम जो वस्तुतः घटित न होने पर किसी दैविक शक्ति की सहायता से होता हुआ जान पड़े। २. जादूगरी के खेल-तमाशे। ३. अर्जुन का एक अस्त्र। ४. माया और मोह। उदाहरण—सो नर इंद्र जाल नहिं भूला।—तुलसी। | 
			
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				| इंद्र-जौ					 : | पुं० [इंद्र यव] कुटज या कुरैया नाम का पौधा जिसके बीज दवा के काम आते हैं। | 
			
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				| इंद्र-दमन					 : | पुं० [ष० त०] १. इंद्र को जीतनेवाला। मेघनाद। २. बाणासुर के एक पुत्र का नाम। ३. नदियों आदि की बहुत अधिक बाढ़ का सूचक एक पर्व जो उस समय माना जाता है, जब पानी बढ़ता-बढ़ता किसी निश्चित पीपल या बड़ की किसी शाखा अथवा किसी कुंड या ताल तक पहुँच जाता है। | 
			
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				| इंद्र-धनुष					 : | पुं० [सं० इन्द्रधनुस्] प्रायः वर्षा ऋतु में आकाश में दिखाई पड़नेवाली सात रंगों का धनुष जैसा अर्द्धवृत्त जो सूर्य की किरणों के परावर्तित होने से बनता है। (रेनबो) | 
			
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				| इंद्र-ध्वज					 : | पुं० [ष० त०] १. इंद्र की ध्वजा या पताका। २. प्राचीन भारत का एक उत्सव जिसमें मुख्यतः नृत्य और गान होते थे। ३. वर्षा और खेती की वृद्धि के लिए बाद्र शुक्ल द्वादसी को मनाया जानेवाला एक पूजनोत्सव जिसमें राजा लोग इंद्र को ध्वजा चढ़ाते थे। | 
			
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				| इंद्र-नील					 : | पुं० [उपमि० स०] नीलम (रत्न)। | 
			
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				| इंद्र-पुरी					 : | स्त्री० [ष० त०] १. इंद्र की नगरी, अमरावती। २. बहुत सजा हुआ और सुन्दर स्थान। | 
			
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				| इंद्र-प्रस्थ					 : | पुं० [ष० त०] पांडवों की वह राजधानी जो उन्होंने खांडव वन जलाकर बनाई और बसाई थी। (आधुनिक दिल्ली के पास) | 
			
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				| इंद्र-मंडल					 : | पुं० [ष० त०] अभिजित से अनुराधा तक के सात नक्षत्रों का समूह। | 
			
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				| इंद्र-यव					 : | पुं० [ष० त०] कुटज या कुरैया नाम का पौधा। | 
			
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				| इंद्र-लोक					 : | पुं० [ष० त०] स्वर्ग। | 
			
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				| इंद्र-वज्रा					 : | स्त्री० [उपमि० स०] एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं। | 
			
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				| इंद्र-वधू					 : | स्त्री० [ष० त०] बीर-बहूटी नामका कीड़ा। | 
			
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				| इंद्र-वंशा					 : | पुं० [उपमि० स०] एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरम में दो तगण, एक जगण और एक रगण होते हैं। | 
			
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				| इंद्र-वारुणी					 : | स्त्री० [सं० इंद्र-वरुण, द्व० स०+अण्-ङीष्] इंद्रायन नाम का पौधा। | 
			
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				| इंद्र-व्रत					 : | पुं० [ब० स०] बहुत ही सत्यनिष्ठ और प्रजापालक (राजा)। | 
			
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				| इंद्र-सावर्णि					 : | पुं० [कर्म० स०] चौदहवें मनु का नाम। | 
			
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				| इंद्र-सूनु					 : | पुं० [ष० त०] १. जयंत। २. अर्जुन। ३. बालि। | 
			
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				| इंद्रक					 : | वि० इंद्र संबंधी। पुं० [सं० ब० स०] सभा-भवन। | 
			
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				| इंद्रजालिक					 : | वि० =ऐंद्रजालिक। | 
			
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				| इंद्रजाली (लिन्)					 : | पुं० [सं० इंद्रजाल+इनि] इंद्रजाल संबंधी खेल-तमाशे दिखलानेवाला व्यक्ति। उदाहरण—इंद्रजालि कहुँ कहिअ न वीरा।—तुलसी। | 
			
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				| इंद्रजित्					 : | पुं० [सं०इंद्र√जि (जीतना)+क्विप्] रावण का पुत्र मेघनाद जिसने इंद्र को युद्ध में जीता था। | 
			
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				| इंद्रजीत					 : | पुं० =इंद्रजित्। | 
			
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				| इंद्रधनुषी					 : | वि० [हिं० इंद्रधनुष+ई(प्रत्यय)] १. इन्द्र धनुष संबंधी। २. इंद्र धनुष की तरह सात रंगोंवाला। | 
			
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				| इंद्रधानी					 : | स्त्री०=इंद्रपुरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| इंद्रा					 : | स्त्री० [सं० इंद्र+टाप्] १. इंद्र की पत्नी, शची। २. इंद्रायन नामक पौधा। | 
			
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				| इंद्राणी					 : | स्त्री० [सं०इंद्र+ङीष्,आनुक] १. इंद्र की पत्नी, शची। २. बड़ी इलायची। ३. इंद्रायन नामक पौधा। ४. दुर्गा देवी। ४. बाई आँख की पुतली। | 
			
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				| इंद्रायन					 : | स्त्री० [सं० इन्द्राणी] तरबूज की तरह की एक लता जिसके फल देखने में बहुत सुन्दर पर अंदर से बहुत कडुए और विषाक्त होते हैं। | 
			
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				| इंद्रायुध					 : | स्त्री० [इंद्र-आयुध, ष० त०] १. इंद्र का अस्त्र, वज्र। २. इंद्रधनुष। | 
			
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				| इंद्रासनपुरी					 : | स्त्री० =अमरावती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| इंद्रिय					 : | स्त्री० [सं० इन्द्र+घ-इय] १. शरीर के वे पाँच अंग (आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) जिनके द्वारा प्राणियों को बाह्य जगत या उसकी वस्तुओं आदि का ज्ञान होता है। २. उक्त के आधार पर पाँच की संख्या। ३. योनि और लिंग। जननेन्द्रिय। ४. वीर्य। | 
			
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				| इंद्रिय-निग्रह					 : | पुं० [ष० त०] इंद्रियों को इस प्रकार वश में करना कि वे मन को चंचल न कर सके। | 
			
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				| इंद्रिय-लोलुप					 : | वि० [ष० त०] जिसे इंद्रियों के सुख-भोगों की बहुत अधिक लालसा हो। | 
			
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				| इंद्रियजित्					 : | पुं० [सं० इंद्रिय√जि (जीतना)+क्विप्] वह, जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो अर्थात् उन्हें वश में कर लिया हो। | 
			
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				| इंद्रियागोचर					 : | वि० [इंद्रिय-अगोचर, ष० त०]=इंद्रियातीत। | 
			
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				| इंद्रियातीत					 : | वि० [इंद्रिय-अतीत, द्वि० त०] (पदार्थ या विषय जो इंद्रियों की पकड़ या पहुँच में न आ सके। जिसे इंद्रियों से जाना जा सके। जैसे—ईश्वर या ब्रह्म। | 
			
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				| इंद्रियायतन					 : | पुं० [इंद्रिय-आयतन, ष० त०] १. वह जिसमें इंद्रियाँ स्थित हों अर्थात् शरीर। २. वेदांत के मत से, सूक्ष्म शरीर। | 
			
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				| इंद्रियाराम					 : | वि० [इंद्रिय-आराम, ब० स०] विषय-भोग में फँसा हुआ। विषयासक्त। | 
			
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				| इंद्रियारामी					 : | वि० =इंद्रियाराम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| इंद्रियार्थ					 : | पुं० [इंद्रिय-अर्थ, ष० त०] वह जिसे इंद्रियाँ ग्रहण सरे। इंद्रियों के भोग का विषय। जैसे—गंध, रस, रूप शब्द तथा स्पर्श। | 
			
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				| इंद्रियार्थवाद					 : | पुं० [इंद्रिय-अगोचर, ष० त०] १. इंद्रियों के सुख भोगने की वृत्ति। २. वह दार्शनिक सिद्धांत जिसके अनुसार यह माना जाता है कि हमें सब प्रकार के ज्ञानइंद्रियों की अनुभूति से ही प्राप्त होते हैं। (सेन्सुअलिज्म)। | 
			
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				| इंद्रियासंग					 : | पुं० [इंद्रिय-असंग, स० त०] अनासक्ति। वैराग्य। | 
			
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				| इंद्री					 : | स्त्री० =इंद्रिय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| इंद्री-जुलाब					 : | पुं० [सं० इंद्रिय+फा० जुलाब] १. वे ओषधियाँ जो पेशाब अधिक कराती है। मूत्रवाही ओषधियाँ। २. उक्त प्रकार की दवा खाने से बार-बार पेशाब होना। | 
			
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				| इंद्रोपल					 : | स्त्री० [इंद्र-उपल, मध्य० स०] नीले रंग का हीरा। | 
			
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