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कथा  : स्त्री० [सं० कथ+अङ-टाप्] १. वह जो कहा जाय। कही जानेवाली या कही हुई बात। २. वह पौराणिक आख्यान जिसका कुछ अंश वास्तविक या सत्य हो और कुछ अंश कल्पित, तथा जो धर्मोंपदेश के रूप में लोगों को विस्तृत व्याख्या करके सुनाया जाय। मुहावरा—कथा बैठाना=ऐसी व्यवस्था करना कि कोई कथावाचक या पौराणिक नियत रूप से कुछ समय तक बैठकर लोगों को पौराणिक कथाएँ सुनाया करे। ३. प्राचीन साहित्य में, उपन्यास का वह प्रकार या भेद, जिसमें उसका कर्ता आदि के अन्त तक कोई घटना सुनाता चलता है। ४. किसी घटना की चर्चा। जिक्र। ५. समाचार। हाल। ६. कहा-सुनी वाद-विवाद। मुहावरा—(किसी की) कथा चुकाना=किसी का वध या हत्या करके उसके कारण होनेवाले उपद्रवों का अंत करना।
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कथा-पीठ  : पुं० [उपमि० स०] १. कथा की प्रस्तावना। २. वह आसन या स्थान जहाँ बैठकर कथावाचक या व्यास कथा सुनाते हों।
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कथा-प्रबंध  : पुं० [ष० त०] १. किसी कथा की वे मूल्य बातें, जिनसे कथा का स्वरूप प्रस्तुत होता है। २. कथा की सब बातें अच्छे ढंग और ठीक क्रम से रखने का भाव या स्थिति।
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कथा-वस्तु  : स्त्री० [ष० त०] १. उपन्यास, कहानी, नाटक आदि की वे सभी मुख्य बाते, जिनसे उनका स्वरूप प्रस्तुत होता है। (प्लॉट) २. विस्तृत अर्थ में, वे सभी मुख्य बातें, जो किसी साहित्यिक रचना में आयी हों या उसका विषय बनी हों।
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कथा-वार्त्ता  : स्त्री० [द्व० स०] १. पौराणिक और धार्मिक कथाए और उनकी चर्चा। २. बातचीत।
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कथांतर  : पुं० [सं० कथा-अंतर, मयू० स०] १. ऐसी स्थिति जिसमें उद्दिष्ट या प्रस्तुत कथा को छोड़कर कोई दूसरी कथा कही जाय। २. अप्रासंगिक या गौण कथा।
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कथानक  : पुं० [सं०√कथ+आनक] १. छोटी कथा या कहानी। २. किसी रचना। (जैसे—उपन्यास, कथा नाटक आदि) की आदि से अंत तक की सब बातों का सामूहिक रूप। वि० दे० ‘कथावस्तु’।
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कथानिका  : स्त्री० [सं० कथानक+टाप्-इत्व] संस्कृत में, उपन्यासों का एक भेद।
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कथामुख  : पुं० [कथा-आमुख, ष० त०] कथा या किसी साहित्यिक रचना की प्रस्तावना।
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