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कल  : पुं० [सं०√कल् (शब्द)+ घञ्, अवृद्धि (नि०)] १. अव्यक्त और अस्पष्ट परन्तु मधुर ध्वनि। जैसे—नदियों का कल-नाद, पक्षियों का कल-रव, रमणी का कल-कंठ। २. वीर्य। ३. चार मात्राओं का काल। ४. पितरों का एक वर्ग। ५. शिव। ६. साल का वृक्ष। वि० १. मनोहर। सुन्दर सुहावना। प्रिय। मधुर। २. कोमल। पुं० [सं० कल्यम्० कल्ये,√कल्; पा० प्रा० कल्लम् कल्हि; का० काल; बँ० काल; उ० काला; पं० कल्ल; सिं० कल्ह; गु० कलि] १. आज के दिन से ठीक पहले का बीता हुआ दिन। जैसे—कल हम वहाँ गये थे। पद—कल का= बहुत थोड़े दिनों या समय का। जैसे—कल का लड़का हमें सिखाने चला है। २. आज के दिन के ठीक बाद आनेवाला दूसरा दिन। जैसे—कल वहाँ जाकर पुस्तक ले आना। मुहा०—आज-कल करना=कोई काम या बात टालने के लिए यह कहते रहना कि आज कर देंगे, कल कर देंगे। केवल बादे करके टालते चलना। जैसे—आज-कल करते-करते तो आपने महीनों बिता दिये। ३. आज के बाद या भविष्य में आनेवाला कोई अनिश्चित दिन या समय। जैसे—(क) आज का काम कल पर टालना ठीक नहीं। (ख) जो करना हो वह तुरन्त कर डालो, कल न जाने क्या हो। पद—कल को=आनेवाले किसी निश्चित समय में। जैसे—(क) आनेवाली पीढ़ियाँ कल को कह सकती हैं कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए कुछ न किया। (ख) आज तो आप ऐसा कहते हैं, पर कल को आप बदल गये तो ? कि० वि० कलके दिन। कल के रोज। जैसे— (क) वह आया था। (ख) कल चले जाना। स्त्री० [सं० कल्प, प्रा० कल्ल] १. नीरोग या रोग-रहित होने की अवस्था या भाव। अच्छा स्वास्थ्य। तंदुरुस्ती। २. आराम, चैन और सुख से रहने की दशा। जैसे—जब से वह बात सुनी है तब से कल पड़ रही है। कि० प्र०— आना।—पड़ता।—पाना। पद—कल से=(क) शांत भाव से और सुखपूर्वक। जैसे—कल से बैठना सीखो। (ख) धीरे से और युक्तिपूर्वक अथवा सहज भाव से। जैसे—कल से बातें करके अपना काम निकालना। ३. तुष्टि, धैर्य और संतोष की स्थिति। ४. ढंग। तरकीब। युक्ति। जैसे—तुम्हें तो कल, बल और छल सभी आते हैं। स्त्री० [सं० प्रा० कला; गु० सिं०, पं० कल; मरा० कल] १. अँग। अवयव। जैसे—ऊँट की कोई कल सीधी नहीं होती। २. पहलू। पार्श्व। बल। जैसे—देखे ऊँट किस कल बैठता है। मुहा०—कल-बेकल होना=किसी प्रकार की अव्यवस्था होना कम बिगड़ना। ३. अनेक प्रकार के पहियों, पुरजों, पुरजों पेचों आदि के योग से बना हुआ कोई ऐसा उपकरण जिससे कोई शिल्पीय कार्य जल्दी, सहज में या सुगमता से होता हो या कोई चीज बनाकर तैयार होती हो। (मशीन) जैसे—ऊख पेरने, कपड़े सीने या दियासलाई बनाई की कल। पद—कल का पुतला=सब प्रकार से किसी दूसरे के अधीन या वश में रहकर काम करनेवाला व्यक्ति। ४. उक्त उपकरण या यंत्र का कोई ऐसा विशिष्ट अंग, पुरजा या पेच जिसे घुमाने, चलाने, दबाने आदि से वह चलने लगता हो या कोई विशिष्ट किया करने लगता हो। जैसे—बंदूक का घोड़ा ही उसे चलानेवाला कल है। मुहा०—(किसी की) कल उमेठना, घुमाना या फेरना=ऐसी युक्ति करना जिससे कोई व्यक्ति कुछ करने या न करने में प्रवृत्त हो। (किसी की) कल के हाथ में होना=किसी का किसी दूसरे के अधीन या वश में होना। जैसे—उनकी कल तो तुम्हारे हाथ में हैं। पद—कल-पुरजा, कल-पुरजें। ५. वह नल जिसमें घर-गृहस्थी के कामों के लिए दूर से पानी आता है। (वाटर पाइप) ६. उक्त का वह अगला भाग जिसमें पानी निकालने और बन्द करने के लिए टोंटी लगी होती हैं। (वाटर टैप) वि० हिं० ‘काला’ शब्द का संक्षिप्त रूप जिसका प्रय़ोग यौगिक शब्द बनाने में पूर्व-पद के रुप में होता है। जैसे—कलजिब्भा, कलदुमा, कलमुँहा, कल-सिरा आदि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [सं० कर] १. किरण। २. चमक। दीप्ति। (राज०) उदा०—बल प्रचंड बल मंड ज्वाल विकराल काल कल।—चंदबरदाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)स्त्री० [सं० कलह] लड़ाई-झगड़ा या वाद-विवाद। (राज०)
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कल कूणिक  : वि० [कल कूणिका] =कलकूजक।
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कल पोटिया  : स्त्री० [हिं० काला+पोटा] एक प्रकार की चिड़िया जिसका पपोटा (अर्थात् आँख के ऊपर की पलक) काले रंग का होता है।
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कल-कंठ  : वि० [ब० स०] [स्त्री० कलकंठी] १. जिसके गले की बनावट बहुत सुन्दर हो। २. जिसका स्वर बहुत ही मधुर या मनोहर हो। पु० १. कोयल। २. हंस। ३. कबूतर।
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कल-कल  : पुं० [सं० कल—द्वित्व=कल-कल] १. नदियों, स्त्रोंतो, आदि के बहने आदि से होनेवाली अव्यक्त, कोमल तथा मधुर ध्वनि। स्त्री० [अनु०] बोलचाल में आपस में प्रायः या बराबर होता रहनेवाला झगड़ा। जैसे—रोज की कल-कल घर को खा जाती है। पुं० [सं०] साल का गोंद। राल। स्त्री० [हिं० कल्लाना] शरीर के किसी अंग में होनेवाली हलकी खुजलीं, चुनचुनाहट या सुरसुरी।
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कल-कूजक  : वि० [ष० त०] [स्त्री० कलकूजिका] १. मधुर ध्वनि करनेवाला। २. मृदुभाषी।
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कल-कूट  : पुं० दे० ‘काल-कूट’।
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कल-घोष  : वि० [ब० स०] प्रिय तथा मधुर शब्द करनेवाला। पुं० कोयल।
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कल-धूत  : पुं० [तृ०त०] १. चाँदी। २. सोना।
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कल-धौत  : वि० [तृ० त०] सुनहला। सोने का। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. चाँदी। रजत। ३. मधुर या मनोहर ध्वनि।
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कल-ध्वनि  : स्त्री० [ब० स०] कोमल, प्रिय या मधुर ध्वनि। सुरीली आवाज। पुं० १. कबूतर। २. मोर।
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कल-नाद  : वि० [ब० स०] मंद और मधुर स्वरवाला। पुं० १. मधुर ध्वनि। २. हंस।
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कल-रव  : पुं० [कर्म० स०] १. पक्षियों के चहकने के कोमल और मधुर शब्द। २. किसी प्रकार की मधुर तथा रसीली ध्वनि। ३. [ब० स०] कोयल। ४. कबूतर।
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कल-हंस  : पुं० [मध्य० स०] १. हंस। २. राजहंस। ३. ईश्वर। परमात्मा। ४. अच्छा या श्रेष्ठ राजा। ५. एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण, एक जगण, दो सगण और एक गुरु क्रमशः होते हैं। ६. राजपूतों की एक जाति। ७. एक प्रकार का संकर राग।
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कल-हास  : पुं० [मध्य स०] चार प्रकार के हासों में से एक जिसमें कोमल और मधुर ध्वनि होती है।
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कलइया  : स्त्री०=कलैया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलई  : स्त्री० [अ०] १. सफेद रंग का प्रसिद्घ खनिज पदार्थ। राँगा। २. पीतल आदि के बरतनों को उजला बनाने तथा चमकाने के लिए उक्त खनिज पदार्थ का प्रस्तुत किया हुआ चूर्ण। ३. उक्त चूर्ण से बरतनों आदि पर किया जानेवाला पतला या हलका लेप। ४. चित्रकला में ऐसा चूर्ण या बुकनी जिसे चिपकाने या लगाने से वह चाँदी की तरह चमकता है। ५. दीवारों आदि पर होने वालों चूने की पुताई। सफेदी। ६. लाक्षणिक अर्थ में तथ्यों या वास्तविकता को छिपाने के लिए उन पर चढ़ाया हुआ आकर्षक किंतु मिथ्या आवरण। किसी एक रूप को छिपाने या ढकने के लिए धारम किया हुआ दूसरा दिखावटी भड़कीला रूप। मुहा०—कलई उधड़ना या खुलना=किसी के आंतरिक तथा वास्तविक स्वरूप या रहस्य का दूसरों को पता लगता। कलई न लगना=चाल या युक्ति का सफल न होना। ७. ऊपरी तथा दिखावटी तड़क-भड़क।
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कलईगर  : पुं० [फा०] १. पीतल-आदि के बरतनों पर कलई करनेवाला कारीगर। २. लाक्षणिक अर्थ में वह व्यक्ति जो वास्तविक तथ्यों को छिपाने के लिए बहुत सुन्दर तथा आकर्षक बाहरी रूप बनाता हो।
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कलईदार  : वि० [फा०] कलई किया हुआ (पात्र या बरतन)।
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कलऊ  : पुं०=कलियुग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंक  : पुं० [सं०√कल् (गति)+ क्विप्, कल्-अंक, कर्म० सं०] [विं० कलंकित, कलंकी] १. दाग। धब्बा। २. कोई ऐसा अनुचित कर्म या कार्य जिससे ख्याति, प्रतिष्ठा या मर्यादा पर बट्टा लगता हो। अपयश या कुख्याति करानेवाला कार्य या उसका लक्षण।
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कलक  : पुं० [अ० कल्क] १. घबराहट। बेचैनी। २. खेद। दुःख। पुं० [सं०] झरने के जल के गिरने या नदियों के बहने से होनेवाला शब्द कल-नाद। पुं०=कल्क।
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कलकना  : स० [हिं० कलकल=शब्द] १. कलकल या मघुर शब्द करना। २. बहुत जोर से चिल्लाना। चीत्कार करना। अ० शब्द होना।
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कलकलाना  : सं० [अन्] कल-कल शब्द करना। अ० १. कल-कल शब्द होना। २. शरीर के किसी अंग में हलकी खुजली, चुनचुनी या सुरसुरी होना। जैसे—हाथ या पैर कलकलाना। ३. लाक्षणिक रूप में किसी प्रकार की प्रवृत्ति होना। जैसे—चपत लगाने के लिए हाथ कलकलाना, मार खाने के लिए पीठ कलकलाना।
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कलंकष  : पुं० [सं० कर√कष्+ खच्(बा०) मुम् र को ल] १. शेर। सिंग। २. एक प्रकार का पुराना बाजा।
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कलंकांक  : पुं० [सं० कलंक-अंक, ब० स०] १. वह जिसके अंक या शरीर में कोई कलंक (दाग या धब्बा) हो। २. चंद्रमा में दिखाई पड़नेवाला दाग या धब्बा।
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कलकानि  : स्त्री० [अ० कलक=रंज] १. मन में होनेवाली घबराहट। चितां। बेचैनी। २. दुःख। स्त्री० [हिं० कलकल] कलह। झगड़ा।
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कलंकित  : वि० [सं० कलकं+इतच्] १. जिस पर कोई कलंक लगा हो या लगाया गया हो। कलंक से युक्त। २. कोई अनुचित या निंदनीय काम करने पर जिसकी लोक या समाज में कुख्याति या बदनामी हुई हो। जिस पर कलंक लगा हो। ३. (लोहा अथवा और कोई धातु) जिस पर जंग लगा हो अथवा मैल जमा हुआ हो।
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कलंकी (किन्)  : विं० [सं० कलंक+इनि] [स्त्री० कलंकिनी] कोई अपराध या दुष्कर्म करने के कारण जिस पर कलंक लगा हो और इसीलिए जो दूषित या निदनीय समझा जाता हो। पुं०=कल्कि (अवतार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंकुर  : पुं० [सं० क√लंक् (गति)+णिच्+उरच्] पानी का भँवर।
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कलक्टर  : पुं० [अ० कलेक्टर] राज्य द्वारा नियुक्त किसी जिले या मंडल का प्रधान शासक। वि० एकत्र करनेवाला। जैसे—टिकट कलक्टर, बिल कलक्टर।
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कलक्टरी  : स्त्री० [हि० कलक्टर] १. कलक्टर का कार्य या पद। २. कलक्टर का कार्यालय । वि० कलक्टरसंबंधी। कलक्टर का। जैसे—कलक्टरी कचहरी।
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कलंगड़ा  : पुं० [सं० कर्लिग] १. तरबूज। २. दे० ‘कर्लिंगड़ा’ (राग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंगा  : पुं० [हिं० कलगी] १. ठठेरों की वह छेनी जिससे वे नक्काशी करते हैं। २. छीपियों का वह ठण्पा जिससे वे कलगे के आकार का बूटा छापते हैं। ३. दे० ‘कलगा’।
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कलगा  : पुं० [तु० कलगी] भरसे की तरह का एक पौधा। मुर्गकेश। जटाधारी। पुं० बड़ी कलगी (देखें)।
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कलंगी  : स्त्री०=कलंगी।
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कलगी  : स्त्री० [तु०] १. कुछ पक्षियों के सिर के ऊपर निकला हुआ परों, बालों आदि का गुच्छा या ऐसी ही और कोई बनावट जो बहुत ही सुन्दर लगती है। चोटी। जैसे—मुरगे या बाज की कलगी। २. कई प्रकार के पक्षियों के बहुत ही कोमल और सुन्दर पर जो पहले राजे-महाराजे अपनी टोपियों और पगड़ियों आदि में आगे की ओर शोभा के लिए उगाते थे। ३. किसी चीज में आगे या ऊपर की ओर निकला हुआ उक्त प्रकार का कोई सुन्दर अंग या अंश। ४. चोटी। शिखर। ५. लाक्षणिक अर्थ में किसी विशेष बात की सूचक कोई वस्तु। ६. लावनी की रचना का एक विशिष्ट ढंग या प्रकार।
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कलंगो  : स्त्री० [हिं० कली+अंग] जगली भाँग का वह भेद जिसमें फूल नहीं होते, केवल बीज होते हैं। (जिसमें फूल भी लगते हैं, उसे फुलंगों कहते हैं।)।
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कलचिड़ा  : पुं० [हिं० काला=सुन्दर+चिड़िया] [स्त्री० कलचिड़ी] एक प्रकार की बड़ी चिड़िया जिसका पेट काला और चोंच लाल होती है। इसकी बोली बहुत मधुर होती है।
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कलछा  : पुं० [सं० कर+रक्षा, हि० करछा] [स्त्री० अल्प० कलछी] बड़ी कलछी। (दे० ‘कलछी’)
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कलछी  : स्त्री० [सं० कर+रक्षी] पीतल, लोहे आदि का बना हुआ बड़े चम्मच के आकार का लंबी डंडीवाला एक प्रसिद्घ उपकरण जिससे बटलोई आदि में परनेवाले व्यंजन चलाये जाते और पक जाने पर निकाले जाते हैं।
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कलछुल  : स्त्री०=कलछी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलछुला  : पुं० [हिं० कलछा] लोहे का बना हुआ एक प्रकार का बहुत बड़ा कलछा जिससे भड़भूचे चने आदि भूनते हैं।
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कलछुली  : स्त्री०= कलछी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंज  : पुं० [सं० क√लंज् (भाषण)+ अण्] १. तमाकू का पौधा। २. हिरन। ३. पक्षी का मांस। ४. एक पुरानी तौल जो १॰ पल की होती थी।
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कलज  : पुं० [सं० कल√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मुर्गा।
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कलजिब्भा  : वि० [हि० काला+जिहवा या जीभ] १. (पशु) जिसकी जीभ काली हो। विशेष—प्रायः ऐसा पशु अशुभ, ऐबी तथा दोषी समझा जाता है। जैसे—कलजिब्भा हाथी। २. (व्यक्ति) जिसके मुँह से निकली हुई अमांगलिक या अशुभ बात प्रायः ठीक उतरती या निकलती हो।
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कलजीहा  : वि०=कलजिब्भा।
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कलजुग  : पुं०=कलियुग।
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कलझँवा  : वि०[हिं० काला+झाँवाँ] १. झाँवें की तरह ऐसे काले रंग वाला जो झुलसा हुआ-सा जान पडे़। २. गहरे काले रंग का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलट्ट्र  : पुं०=कलक्टर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलठोरा  : वि० [हिं० काला+ ठोर=चोंच] काली चोंच वाला। पुं० सफेद रंग का वह कबूततर जिसकी चोंच काली हो।
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कलत  : स्त्री० [सं० कलव] पत्नी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलत्र  : पुं० [सं०√गड् (सींचना)+ अत्रन्, ग=क, ड=ल] [वि० कलत्रवान, कलत्री] १. स्त्री। पत्नी। भार्या। २. चूतड़। नितब। ३. किला। दुर्ग।
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कलथरा  : पुं० [देश०] करघे की चक नामक लकड़ी। (दे० ‘चक’)
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कलंदर  : पुं० [अ० कलंदर] १. एक प्रकार के मुसलमान फकीर। २. मुसलमान मदारी जो बंदरों, भालओं आदि के तमाशे दिखाते फिरते हैं। ३. दे० ‘कलंदरा’।
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कलंदरा  : पुं० [अ० कलन्दरः] १. एक प्रकार का कपड़ा जो सूत, रेशम और टसर के मेल से बनता है। २. खेमे में लगी हुई वह खूँटी जिस पर कपड़े आदि टाँगे जाते है। ३. वह खूँटा जिससे खेमे की रस्सियाँ खींच कर बाँधी जाती हैं। पुं० [अं० =कैलेंडर] १. जंतरी। पंचांग। २. अभियोगों की वह सूची जो अभियुक्त का विचार करने से पहले प्रस्तुत की जाती है। (चार्जशीट)।
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कलंदरी  : वि० [हिं० कलंदरा+ई (प्रत्य०) ] कलंदर-संबंधी। कलदरों का। पुं० वह खेमा जिसमें कलंदरे या खूँटियाँ लगी हों।
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कलदार  : वि० [हिं० कल+ दार] जिसमें किसी प्रकार की कल या पेज लगा हो। पुं० टकसाल में कल या यंत्र की सहायता से बना हुआ रुपया।
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कलदुमा  : वि० [हिं० काला+फा० दुम] जिसकी दुम या पूँछ काली हो। जैसे—कल-दूमा कबुतर या बैल।
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कलंधर  : पुं० [सं० कलाधर] चन्द्रमा।
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कलधुरि (ी)  : पुं० दक्षिण भारत का एक प्राचीन राजवंश जिसके शासन में कर्णाट, चेदि, दाहल, मंडल आदि प्रदेश थे।
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कलन  : पुं० [सं०√कल् (गति, शब्द, संख्या)+ल्युट्—अन] १. ग्रहण या धारण करना। २. अच्छी तरह जानना या समझना। ३. कोई चीज तैयार या बनाना। ४. अच्छी तरह लगा था। सजाकर जमाना बैठाना या रखना। ५. गणना करना। हिसाब लगाना। ६. आचरण। ७. लगाव। संबंध। ८. कौर। ग्रास। ९. ऐब। दोष। १॰. दाग। धब्बा। ११. बेंत। १२. गर्भ में शुक और शोणित संयोग से पहले-पहल बननेवाला वह रूप जिससे आगे चलकर कलल बनता है।
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कलना  : स्त्री० [सं०√कल्+ णिच्+युच्—अन, टाप्] १. ग्रहण करने या लेने की किया या भाव। २. ज्ञान। ३. रचना। बनावट। विशेषतः सुन्दर बनावट या रचना। उदा०—देव-सृष्टि की सुख-विभावरी तारों की कलना थी।—प्रसाद। सं० [सं० कलन] १. कलन करना। गिनती करना। गिनना। २. हिसाब लगाना।
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कलप  : पु० [सं० कलाप] झुंड। समूह। उदा०—करी चीह चिक्कार करि कलप भग्गे।—चंदबरदाई। पुं० [सं० कल्प=रचना] १. कलफ। माँड़ी। २. खिजाब। ३. दे० ‘कल्प’।
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कलप-बिरिछ  : पुं० =कल्प-वृक्ष।
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कलप-बेलि  : स्त्री०=कल्पवल्ली (कल्प-वृक्ष)।
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कलपंत  : पुं०=कल्पांत।
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कलपत्तर  : पुं० [सं० कल्पतरु] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष जिसकी सफेद लकड़ी बहुत मजबूत होती है।
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कलपना  : सं० [सं० कल्पन] १. केवल अनुमान के आधार पर और अपने मन में किसी बात का स्वरुप बनाना या स्थिर करना। कल्पना करना उदा०—कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई।—तुलसी। २. किसी का ध्यान करना। उदा०—ब्रह्मादिक सनकादि महामुनि कलपत दीड़ कर जोरि। सूर। ३. रचना करना। गढ़ना। बनाना। ४. कतर या काटकर अलग करना। उदा०—कलपि माथ जेहि दीन्ह सरीरु।—जायसी। ५. पेड़-पौधों की कलम काटकर उसे नई जगह लगाना। उदा०—सोरह सिंगार कै नवेलिन सहेलिन हूँ कीन्ही केलि मन्दिर में कलपति केरे हैं।—पद्याकर। अ० बहुत अधिक कष्ट या दुःख में पड़ने पर रह-रह कर संतप्त होना और अपने मनस्ताप की चर्चा करते हुए बिलखना। बराबर मन तड़पते रहने पर विलाप करना। जैसे—किसी के अत्याचार से पीड़ित होकर अथवा किसी के वियोग या शोक में कलपना। उदा०—नेकु तिहारे निहारे बिना कलपै जिय पल धीरज लेखौ।—पद्याकर। पद—रोना-कलपना (देखें ‘रोना’ के अन्तर्गत)। स्त्री० बहुत दुःखी होने पर उक्त प्रकार से कलपने, तड़पने या विकल होने की किया या भाव। मुहा०—(किसी की) कलपना लेना=ऐसा अनुचित काम करना जिससे कोई कलपे तथा कलप कर कोसे। किसी को कलपा कर उसका अभिशाप लेना।
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कलपनी  : स्त्री० [सं० कल्पनी] कतरनीय़। कैंची। (डिं०)
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कलपांत  : पुं०=कल्पांत।
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कलपाना  : सं० [हिं० कलपना का प्रेर०] १. किसी को कलपने में प्रवृत्त करना। २. ऐसा अनुचित या निर्दयतापूर्ण काम करना, जिससे कोई बहुत दुःखी होकर कलपने लगे।
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कलपून  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष जिसकी लकड़ी लाल रंग की होती और इमारत के कामों के लिए अच्छी समझी जाती है।
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कलप्ना  : पुं० [मला० कलपा=नारियल] किसी-किसी नारियल के बीच में से निकलनेवाली नीलापन लिये हुए सफेद रंग की एक कड़ी वस्तु जिसे ‘नारियल या मोती’ भी कहते हैं।
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कलप्पना  : अ० स०=कलपना।
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कलफ  : पुं० [अ० मि० सं० कल्प] चावल, अरारोट आदि को पकाकर बनाई हुई पतली लेई जिसे धुले कपड़ों पर लगाकर उनकी तह कड़ी की जाती है। माँड़ी।
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कलफदार  : वि० [हिं० कलफ+फा० दार] (वस्त्र) जिस पर कलफ या माँडी लगी हो।
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कलफा  : स्त्री० [देश०] मलाबार की दारचीनी की छाल जो चीन की दारचीनी में उसे सस्ता करने के लिए मिलाई जाती है। पुं० =कल्ला (कोंपल) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंब  : पुं० [सं०√कल् (क्षेप) +अम्बच्] १. कदंब। २. शेर। सरपत। ३. साग का डंठल।
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कलब  : पुं० [देश,] टेसू के फूलों को उबालकर बनाया जानेवाला एक प्रकार का रंग। पुं० [अ० कल्ब] हृदय। (क्व०)
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कलंबक  : पुं० [सं०√कड् (मद)+ अम्बच्,+कन्, ड=ल] एक तरह का कदंब।
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कलबल  : पुं० [सं० कला+ बल] १. काम निकालने के लिए किये जाने-वाले दाँव-पेच या युक्तियाँ। जैसे—उसे बहुत-से कल-बल आते हैं। २. बनाव-सिंगार। ३. अस्पष्ट उच्चारण या शब्द। ४. हो-हल्ला। शोर।
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कलंबिका  : स्त्री० [सं० कलंब+ ङींप्, कलंबी√कै (शब्द)+ क—टाप्, ह्वस्व] गले के पीछे की नाड़ी। मन्या।
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कलबीर  : पुं० =अकलबीर। (एक पौधा)
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कलबूत  : पुं० [फा० कालबुद] मिट्टी, लकड़ी, लोहे आदि का बना हुआ वह ढाँचा या साँचा जिस पर चढ़ा या रखकर जूते, टोपियाँ, पगड़ियाँ आदि तैयार की जाती है।
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कलभ  : पुं० [सं० कर√भा (दीप्ति)+क, र=ल या√कल्+अभच्] [स्त्री० कलभी] १. हाथी या हाथी का बच्चा। २. ऊँट या ऊँट का बच्चा। उ० किसी पशु का बच्चा। ४. धतूरा।
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कलभक  : पुं० [सं० कलभ+कन्] हाथी का बच्चा।
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कलम  : स्त्री० [सं०√कल्+कमच् अथवा√कल्+णिच्+अम। अ० या कलम] १. छड़ के छोटे टुकड़े के रूप में बना हुआ वह प्रसिद्ध उपकरण या साधन जिसके द्वारा स्याही की सहायता से कागज आदि पर अक्षर शब्द, वाक्य आदि लिखे और लकीरें, बेल-बूटे आदि बनाये जाते हैं। विशेष—(क) यह शब्द संस्कृत में पुल्लिंग होने पर भी अरबी कलम के कारण उर्दू के प्रभाव से हिन्दी में स्त्रीलिंग ही माना जाता है। (ख) पहले लोहे की नुकीली कलमें होतीं थीं, जिनमें ताड़-पत्र आदि पर अक्षर बनाये जाते थे। आगे चलकर किलक, सरकंडे तथा कुछ बड़े पक्षियों के परों की कलमें बनने लगीं थी, जिनका अगला भाग छीलकर नुकीला कर दिया जाता था और उनके बीच का अंश काटकर दो भागों में विभक्त कर दिया जाता था, जिससे स्याही सहज में कागज पर उतरने लगती थी। फिर पाश्चात्य देशों में इसी प्रकार की पीतल, लोहे की छोटी जीभियाँ बनने लगी थी, जो कलमों के अगले भाग में फँसा दी जाती थी। अब अधिकार ऐसी कलमों का प्रचलन है जिनमें स्याहीं का खजाना भीतरी भाग में बना रहता है, जिसमें से स्याही आप-से-आप उतरती है। मुहा०—कलम चलना=लिखने का काम होना। लिखा जाना। कलम चलाना=लिखने का कार्य आरम्भ करना। लिखने लगना कलम तोड़ना=लिखने की ऐसी योग्यता या शक्ति दिखाना कि लोग दंग रह जाँ। (उर्दू के शायरों की बोल-चाल से गृहीत) (किसी लेख पर) कलम फेरना=किसी प्रकार की लिखावट या लेख पर रेखा या रेखाएँ खींचकर उन्हें निरर्थक, रद्द या व्यर्थ करना। जैसे—आपने तो उनके सारे लेख पर कलम फेर दी। (अर्थात्) उसे व्यर्थ कर दिया। २. उक्त के आधार पर लिखने का यथेष्ट कौशल, ढंग योग्यता या शक्ति या उसका परिचायत तत्त्व। लिखने का कौशल या उसकी सूचक विशिष्टता। जैसे—आपकी कलम भला कहीं छिप सकती है। ३. परों० बालों आदि की बनी हुई कूँची जिससे चित्रकार चित्र बनाते हैं। ४. उक्त के आधार पर चित्रकारी का विशिष्ट क्षेत्र, प्रकार या शैली। जैसे—पहाड़ी (या राजस्थानी) कलम के चित्र। ५. किसी पेशेवाले का वह औजार उपकरण जिससे वे बेल-वूटे आदि उकेरते या नकाशते हैं। जैसे—(क) कमेरों, संग-तराशों या सुनारों की कलम। (ख) शीशा काटनेवालों की हीरे की कलम। ६. शीशे के वे छोटे पहलदार और लंबोतरे टुकड़े जो शीशे के झाड़-फानूसों के नीचे शोभा के लिए कटकाये जाते हैं। ७. पेड़-पौधों की वे टहनियाँ जो काटकर दूसरी जगह इसीलिए गाड़ी या लगाई जाती है। कि उनसे उसी प्रकार के नये पेड़-पौझे उगें। ८. उक्त प्रकार से काटकर लगाई हुई टहनी से उगा हुआ पेड़ या पौधा। मुहा०—कलम करना=किसी चीज का कोई अंग काटकर उससे अलग करना। जैसे—अगर सर को तो यों सरको, कलम कर गो मेरे सर को।—कोई शायर। कलम कराना=कटवा डालना। उदा०—कलम रुकै तो कर कलम कराइए।—कोई कवि। ९. नौसादर, शोरे आदि के जमें हुए छोटे, नुकीले, लंबोतरे टुकड़े या रवे। रवा। केलास। (क्रिस्टल) १॰. दाढ़ी (हजामत) बनाने में कनपटियों पर बालों की वह लम्बी रेखा जो कान के मध्य भाग के पास से काटकर अलग कर दी जाती है और जिसके नीचे गालों पर के बाल मूँड़कर साफ कर दिये जाते हैं। ११. एक प्रकार की बाँसुरी या वंशी। १२. फुलझड़ी नाम की आतिशबाजी जो देखने में लिखने की कलम की तरह होती है।
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कलमकार  : पुं० [फा०] १. कलम की सहायता से किसी प्रकार की कला, शिल्प, आदि की रचना करनेवाला कारीगर या शिल्पी। २. एक प्रकार का बाफ्ता (कपड़ा)।
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कलमकारी  : स्त्री० [फा०] कलम की सहायता से की जानेवाली कारीगरी। जैसे—कागज या बरतन पर बनाये हुए बेल-बूटे आदि।
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कलमख  : पुं० =कल्मष।
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कलमतराश  : पुं० [फा०] वह चाकू या छुरी जिससे मुख्यतः कलमें तराशकर लिखने के योग्य बनाई जाती हैं।
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कलमदान  : [फा०] लकड़ी, लोहे, शीशे आदि का बना हुआ वह आधान जिसमे कलमें तथा दावातें रखी जाती हैं।
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कलमना  : स० [हिं० कलम] कलम करना। काटना। तराशना।
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कलमबंद  : वि० [अ०+फा०] लिखा हुआ। लिखित। पुं० चित्र आदि अंकित करने की कलम या कूँची बनानेवाला कारीगर।
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कलमलना  : अ० [अनु०] १. इधर-उधर से दबने के कारण अंगों का आगे-पीछे हिलना-डोलना। २. बेचैन होना। ३. विचलित होना। घबराना।
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कलमलाना  : अ०=कलमलना।
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कलमस  : पुं०=कल्मष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलमा  : पुं० [अ०] १. वाक्य। २. मुँह से निकली हुई कोई बात। वचन। ३. इस्लाम धर्म में मुहम्मद साहब का एक प्रसिद्ध वाक्य (ला इलह इल्लिल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलिल्लाह=उस एक ईश्वर के सिवा और कोई ईश्वर या देवता नहीं है; और मुहम्मद साहब उस ईश्वर के रसूल, पैगम्बर या दूत हैं) जो इस्लाम धर्म का मूलमंत्र माना गया है और जिसका शुद्ध हृदय से उच्चारण कर लेने पर यह माना जाता है कि यह आदमी मुसलमान हो गया। मुहा०—कलमा पढ़ना=उक्त वाक्य का विधिपूर्वक उच्चारण करके इस्लाम धर्म का अनुयायी बनना।
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कलमास  : वि० [सं० कल्माष] चितकबरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलमी  : वि० [फा०] १. (लेख) जो कलम से लिखा गया हो। हस्तलिखित। (छापे आदि से भिन्न) २. (चित्र) जो कलम या कूची से अंकित किया गया हो। (फोटो, मुद्रण आदि से भिन्न) ३. (पौधा या वृक्ष) जो कहीं से कलम के रूप में काटकर लाया और लगाया गया हो तथा उसमें लगनेवाले फल या फूल। जैसे—कलमी आम, कलमी गुलाब। ४. (रासायनिक पदार्थ) जो कलम या रवे के रूप में जमा या जमाया हुआ हो। जैसे—कलमी शोरा। स्त्री० [सं० कलम्बी] करेमू नाम का साग।
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कलमी शोरा  : पुं० [हिं० कलमी+शोरा] साफ किया हुआ शोरा जो कलमों या रवों के रूप में होता है।
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कलमुँहा  : वि० [हिं० काला+मुँह] १. जिनका मुँह काला हो। काले मुँहवाला। जैसे—कलमुँहा बन्दर=लंगूर। २. जिसके मुँह पर कालिख लगी हो; अर्थात् जिसे कलंक या लांछन लगा हो। ३. अशुभ या अमांगलिक बातें कहनेवाला।
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कलया  : स्त्री० [सं० कला] झोंके से सिर नीचे और पैर ऊपर करके उलट जाने की क्रिया या भाव। कलाबाजी। क्रि० प्र०—खाना।—मारना।
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कलरिन  : स्त्री० [कल्लर से] कल्लर जाति की स्त्री० जो प्रायः जोंक लगाने का काम करती है।
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कलल  : पुं० [सं०√कल्+कलच्] गर्भाशय में रज और वीर्य के संयोग से बननेवाली पतली झिल्ली। स्त्री०=कलकल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कललज  : पुं० [सं० कलल√जन् (पैदा होना)+ड] १. गर्भ में बच्चे का वह रूप जो कलल के विकसित होने पर बनता है। २. राल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलवरिया  : स्त्री० [हिं० कलवार] कलवार की दूकान जहाँ शराब बिकती है।
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कलवार  : पुं० [सं० कल्यपाल, प्रा० कल्लवाल] [स्त्री० कलवारिन] एक जाति जिसका धंधा शराब बनाना और बेचना है।
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कलविंक  : पुं० [सं० कल√बंक (रोना)+अच्, पृषो० इत्व] १. गौरैया या चटक नामक पक्षी। चिड़ा। २. तरबूज।
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कलश  : पुं० [सं० कल√श् (गति)+ड (बा०)] [स्त्री० अल्प० कलशी] १. घड़ा। गगरा। २. मंदिरों आदि के शिखर पर लगा हुआ वह कँगूरा जो कलश या घड़े के आकार का होता है। ३. ऊपर उठी हुई चीज का सब से ऊपरी भाग। चोटी। सिरा। ४. एक पुरानी तौल जो सेर के लगभग होती थी। द्रोण। ५. नृत्य में एक प्रकार की भंगिमा। ६. हठयोग में आत्मा या हृदय रूपी कमल। ७. एक छंद जो चौपाई और त्रिभंगी अथवा त्रिभंगी और नित्या के मेल से बनता है। वि० सब में श्रेष्ठ। शिरोमणि। उदा०—शुभ सूरज कुल-कलश नृपति दशरथ भये।—केशव।
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कलशी  : स्त्री० [सं० कलश+ङीष्] १. छोटी कलसी। गगरी। २. छोटा कलश (देखें)। ३. एक प्रकार का पुराना बाजा।
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कलस  : पुं० [सं० क√लस् (शोभित होना)+अच्]=कलश।
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कलसा  : पुं० [सं० कलश] [स्त्री० अल्पा० कलसी] पानी रखने का बड़ा घड़ा।
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कलसिरा  : वि० [हिं० कलह+शील ?] [स्त्री० कलसिरी] झगड़ालू। लड़ाका।
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कलसिरी  : स्त्री० [हिं० काला+सिर] एक प्रकार की चिड़िया जिसका सिर काले रंग का होता है।
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कलसी  : स्त्री० [सं० कलस+ङीष्] १. छोटा कलसा या घड़ा। २. वास्तु, शिल्प आदि में छोटे-छोटे कँगूरों आदि की बनावट। कलैश।
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कलसी-सुत  : पुं० [मध्य० स०] अगस्त्य ऋषि, जिनके संबंध में यह माना जाता है कि इनका जन्म घड़े में से हुआ था।
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कलह  : पुं० [सं० कल√हन् (मारना)+ड] [वि० कलहकार; कलहकारी, कलही] १. घर के लोगों में अथवा दो घरों में होनेवाला नित्य का झगड़ा या विवाद। २. युद्ध। ३. तलवार का म्यान।
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कलह-प्रिय  : वि० [ब० स०] जिसे कलह या लड़ाई झगड़ा करना ही अच्छा लगता हो। झगड़ालू। पुं० नारद मुनि का एक नाम।
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कलहकार  : वि० [सं० कलह√कृ (करना)+अण्]=कलहकारी।
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कलहकारी (रिन्)  : वि० [सं० कलह√कृ+णिनि] [स्त्री० कलहकारिणी] जो स्वभावतः दूसरों से लड़ता-झगड़ता रहता हो। झगड़ालू।
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कलहंतरिता  : स्त्री०=कलहांतरिता।
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कलहनी  : स्त्री० [हिं० कलहिनी] प्रायः कलह करनेवाली या झगड़ालू स्त्री।
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कलहांतरिता  : स्त्री० [कलह-अंतरिता, तृ० त०] साहित्य में वह नायिका जो अपने पति या प्रेमी से कलह या झगड़ा करने के उपरांत पछताती हो।
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कलहार (ा)  : वि० [स्त्री० कलहारी]=कलही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलहिनी  : वि० [सं० कलहिन्+ङीष्] (स्त्री) जो घर में प्रायः कलह या झगड़ा करती हो। लड़ाकी। स्त्री०=शनि की पत्नी का नाम।
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कलही (हिन्)  : वि० [सं० कलह+इनि] [स्त्री० कलहिनी] प्रायः कलह या लड़ाई-झगड़ा करता रहनेवाला। झगड़ालू।
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कलाँ  : वि० [फा०] १. आकार, विस्तार आदि में बड़ा। दीर्घाकार। २. वय में बड़ा।
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कला  : स्त्री० [सं०√कल्+अच्, टाप्] १. किसी चीज का बहुत छोटा अथवा सबसे छोटा अंश या संयोजक भाग। २. चन्द्रमा के प्रकाश और विंब के घटते-बढ़ते रहने के विचार से उसका सोलहवाँ अंश या भाग। विशेष—हमारे यहाँ चन्द्रमा की सोलह कलाएँ मानी गई हैं जिनके अलग अलग नाम हैं और जिनके क्रमशः बढ़ते रहने से पूर्णिमा और घटते चलने से अमावस्या होती है। ३. उक्त के आधार पर १६ की संख्या या वाचक शब्द। ४. सूर्य के परिभ्रमण मार्ग और उसमें पड़नेवाली राशियों के विचार से उसका बारहवाँ अंश या भाग जो प्रायः एक महीने में पूरा होता है। ५. राशि चक्र के प्रत्येक अंश का साठवाँ भाग। (डिग्री) ६. काल या समय का एक बहुत छोटा मान विभाग जो किसी के मत से एक मिनट से कुछ कम बहुत छोटा मान या विभाग जो किसी के मत से एक मिनट से कुछ कम का, किसी के मत से डेढ़ मिनट से कुछ अधिक का और किसी के मत से दो मिनट से भी अधिक का माना गया है। ७. मूल-धन का ब्याज या सूद जो (चन्द्रमा की कला की तरह) बराबर बढ़ता चलता है। ८. छंदशास्त्र में गणना के विचार से प्रत्येक अक्षर या मात्रा। जैसे—द्विकल या त्रिकल पद। ९. वैद्यक में शरीर के अन्तर्गत सात धातुओं में किसी या हर धातु की संज्ञा। (देखें ‘धातु’) जैसे—मांस, भेद, रक्त आदि कलाएँ (या धातुएँ) १॰. गर्भ का वह रूप जो कलम (देखें) कहलाता है। ११. शरीर के अन्दर की वह झिल्ली जो भिन्न-भिन्न अंगों के बीच में रहकर उन्हें एक दूसरे से पृथक् रखती है। (मेम्ब्रेन) १२. आज-कल अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर अच्छी तरह, नियम तथा व्यवस्थापूर्वक और संबद्ध सिद्धान्तों का ध्यान रखते हुए कोई काम ठीक तरह से करने या कोई कृति प्रस्तुत करने का कौशल या चतुरता। ऐसा कर्तृत्व जिसमें उद्भावना के सहारे कोई कार्य प्रशंसनीय तथा आकर्षक या मनोहर रूप में संपन्न या संपादित किया जाय। हुनर। (आर्ट) विशेष—व्यापक दृष्टि से देखने पर मनुष्य के प्रत्येक कार्य में कला अपेक्षित होती है। इसीलिए हमारे यहाँ शैव तंत्र में ६४ कलाओं का निरूपण किया गया है। जैसे—गाना, नाचना, बाजे बजाना, अभिनय करना, कविता करना, चित्र बनाना, फूलों आदि से सुन्दर आकृतियाँ बनाना, अंग, वस्त्र आदि रँगना और उनके रँगने के लिए उपकरण बनाना, ऋतुओं आदि के अनुसार सजावट करना, कपड़े, गहने और सुगंधित द्रव्य बनाना, जादू या हाथ की सफाई के अथवा शारीरिक व्यायाम के खेल दिखाना, सीना-पिरोना, कपड़ों पर बेल-बूटे बनाना, धातु, पत्थर, लोहे आदि की चीजें बनाना, तर्क-वितर्क और बात-चीत करना, चारपाई, पलंग आदि बुनना, चाँदी, सोना, रत्न आदि परखना, पशु-पक्षियों आदि की चिकित्सा और पालन-पोषण करना और उन्हें तरह-तरह के काम सिखाना, अनेक प्रकार की बोलियाँ और भाषाएँ समझना तथा बोलना, प्राकृतिक घटनाओं आदि के आधार पर और उनके संबंध में भविष्यवाणी करना, आदि-आदि सभी प्रकार के कौशल-जन्य तथा सुरुचिपूर्ण काम और बातें कला के क्षेत्र में आती हैं। इसी आधार पर आज-कल काव्य-कला, चित्र-कला, लेखन-कला, वास्तु-कला आदि सैकड़ों पद प्रचलित हो गये हैं। १३. अध्ययन और अनुशीलन का वह अंग या क्षेत्र जो मनुष्य को अपने जीवन-निर्वाह तथा उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त करने के योग्य तथा समर्थ बनाता है। (आर्ट्स) १४. नटों या बाजीगरों के अथवा और लोगों के सभी प्रकार के अनोखे करतब या कार्य। मुहा०—कला करना=नटों आदि का अनेक प्रकार के करतब और कौशल दिखाना। उदा०—ज्यों बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कै। १५. सभा-समितियों आदि में होनेवाले कार्यों का पूरा या यथा-तथ्य विवरण। (मिनट) १६. शिव का नाम। १७. अक्षक या वर्ण। १८. लगाव। संबंध। १९. जीभ। जिह्वा। २॰० नाव। नौका। २१. स्त्री० का रज। २२. महत्त्व या श्रेष्ठता का सूचक तेज। विभूति। २३. छटा। शोभा। २४. ज्योति। प्रभा। २५. एक प्रकार का नृत्य। २६. मनुष्य की पाँचों कर्मेन्द्रियों, पांचों ज्ञानेंद्रियों, प्राण और बुद्धि या मन का समूह। (भिन्न-भिन्न आचार्यों या शास्त्रों के मत से इन सोलहों संयोजक अंशों या तत्त्वों के नामों, रूपों आदि में कुछ अंतर भी है।
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कला-कुशल  : वि० [स० त०] किसी कला में बहुत ही चतुर या होशियार (व्यक्ति)।
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कला-कृति  : स्त्री० [मध्य० स०] कलापूर्ण कृति या रचना।
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कला-केलि  : पुं० [ब० स० कामदेव।
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कला-कौशल  : पुं० [ष० त०] १. किसी कला में कुशल होने की अवस्था या भाव। २. कारीगरी। ३. दस्तकारी। शिल्प।
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कला-क्षय  : पुं० [ष० त०] १. कृष्णपक्ष में चन्द्रमा की कलाओं का धीरे-धीरे घटना। २. क्रमशः या धीरे-धीरे होनेवाला क्षय या ह्रास।
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कला-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] कामरूप देश का एक प्राचीन तीर्थ।
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कला-चिकित्सा  : स्त्री० [तृ० त०] एक नवीन चिकित्सा-प्रणाली जिसमें रोगियों के मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य के सुधार के लिए उन्हें किसी कला-संबंधी काम में लगाया जाता है (आर्टथैरैपी)।
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कला-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. किसी कला या कई कलाओं का ज्ञाता। २. चन्द्रमा।
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कला-निधि  : पुं० [ष० त०] १. अनेक कलाओं का पूर्ण ज्ञाता या पंडित। २. चन्द्रमा।
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कला-न्यास  : पुं० [ष० त०] तंत्र में शिष्य के शरीर पर किया जाने वाला एक प्रकार का न्यास।
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कला-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] सभा-समितियों आदि की बैठकों के कार्यविवरण लिखने की पंजी या रजिस्टर (मिनिट बुक)।
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कला-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह भवन जिसमें प्रदर्शन के लिए कलासंबंधी अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुएँ और मुख्यतः चित्रकला की आकृतियाँ रखी रहती हों। (आर्टगैलरी)।
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कलाई  : स्त्री० [सं० कलाची] १. हथेली और कोहनी के बीच का उतना भाग जहाँ कड़े, चूड़ियाँ आदि पहनी जाती हैं। गट्टा। मणिबंध। २. सिले हुए कपड़े का उतना भाग जितना कलाई पर पड़ता है। स्त्री० [सं० कलापी] १. सूत आदि का लच्छा। २. घास आदि का पूला। ३. नई फसल के तैयार होने पर कुल-देवताओं की की जाने वाली पूजा। ४. दे० ‘कलावा’। स्त्री० [सं० कुलत्थ] उरद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलाकंद  : पुं० [फा०] खोये की एक प्रकार की बड़ी बरफी।
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कलाकर  : पुं० [सं० कला-आकर, ष० त० ?] अशोक की तरह का एक पेड़। देवदारी।
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कलाकार  : पुं० [सं० कला√कृ+अण्] [भाव० कलाकारिहा, कलाकारी] १. वह जो किसी कला का ज्ञाता हो। २. कोई कलापूर्ण कृति बनानेवाला। (आर्टिस्ट) ३. अभिनेता। नट।
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कलाकारिता  : स्त्री० [सं० कलाकार+इनि+तल्—टाप्] कलाकार का काम या भाव।
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कलाकारी  : स्त्री०=कलाकारिता।
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कलांकुर  : पुं० [?] १. कराकुल पक्षी। २. चौर्य-शास्त्र के रचयिता एक प्राचीन आचार्य।
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कलाकुल  : पुं० [सं० कला आ√कुल् [इकट्ठा होना)+अच् ?] हलाहल विष।
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कलाँच  : पुं० [तु० कल्लाश] दरिद्र। निर्धन।
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कलाची  : स्त्री० [सं० कला√अच् (गति)+अण्, ङीष् (गौरा०)] १. हाथ की कलाई। २. कलछी।
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कलाजंग  : पुं० [हिं कला+जंग] कुश्ती में एक प्रकार का पेंट या दाँव।
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कलाजाजी  : स्त्री० [सं० कला√जन्+उ-कलाज,+आ√जन्+ड, ङीष् (गौरा०)] मँगरैला।
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कलाटीन  : पुं० [सं० कलाट+ख=ईन्] खंजन की तरह का एक पक्षी।
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कलांतर  : पुं० [सं० अन्या-कला=अंश, सुप्सुपा स०] सूद। ब्याज।
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कलातीत  : वि० [सं० कला-अतीत, द्वि० त०] जो सब प्रकार की कलाओं से ऊपर या परे हो। पुं० ईश्वर का एक नाम।
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कलात्मक  : वि० [कला-आत्मन्, ब० स०, कप्] १. कला-संबंधी। कला से युक्त। २. (ऐसी कृति या रचना) जो बहुत ही सुन्दर हो तथा कलापूर्ण ढंग से बनाई गई हो। (आर्टिस्टिक)।
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कलादक  : पुं० [सं० कला-आ√दा (देना)+क, कलाद+कन्] सुनार।
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कलादा  : पुं० [सं० कलाप, हिं० कलावा] हाथी के कंधे और गले के बीच का वह स्थान जिस पर महावत बैठता है। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलाधर  : पुं० [सं० कला√धृ (धारण करना)+अच्] १. वह जो अनेक कलाओं या विद्याओं का ज्ञाता हो अथवा किसी कला में विशेष रूप से प्रवीण हो। २. चन्द्रमा। ३. शिव। ४. दंडक छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में एक गुरु और एक लघु के क्रम से १५ गुरु और १५ लघु वर्ण होते हैं और तब अन्त में एक गुरु होता है।
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कलाप  : पुं० [सं० कला√आप् (पाना)+अण्] १. एक ही प्रकार की बहुत-सी चीजों या बातों का समूह। जैस—कार्य-कलाप। केश-कलाप। २. किसी चीज को या बहुत-सी चीजों को एक में बाँधनेवाली चीज। ३. घास-फूस आदि का गट्ठा या पूला। ४. कमरबंद। पेटी। ५. करधनी। ६. कलाई पर बाँधा जानेवाला सूत का लच्छा। कलावा। ७. किसी प्रकार का कार्य या व्यापार। ८. आभूषण। गहना। जेवर। ९. शोभा या सौंदर्य बढ़ानेवाली कोई चीज या बात। १॰. वेद की एक शाखा। ११. कातंत्र व्याकरण का एक नाम। १२. एक प्रकार का पुराना अस्त्र। १३. चन्द्रमा। १४. मोर की पूँछ। १५. तरकश। तूण। १६. एक प्रकार का संकर राग। (संगीत)
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कलापक  : पुं० [सं० कलाप+कन्] १. हाथी के गले या पैर में बाँधा जानेवाला रस्सा। २. ऐसे चार श्लोकों का वर्ग या समूह जिनका अन्वय एक साथ होता हो। ३. प्राचीन भारत में ऐसा ऋण जो यह कहकर लिया जाता था कि यह कलाप अर्थात् मोर के नाचने के समय अर्थात् वर्षा ऋतु में चुकाया जायगा। ४. दे० ‘कलाप’।
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कलापट्टी  : स्त्री० [पुर्त० कलफेटर] जहाजों की पटरियों को दरजों या संधियों में सन आदि भरने का काम। (लश०)
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कलापिनी  : स्त्री० [सं० कलाप+इनि, ङीष्] १. रात्रि। २. मोर की मादा। मोरनी। ३. नागरमोथा।
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कलापी (पिन्)  : वि० [सं० कलाप+इनि] १. जिसके पास तूणोर या तरकश हो। २. गिरोह या झुंड में रहनेवाला (जीव या प्राणी)। पुं० १. मोर। २. कोयल। ३. बरगद का पेड़।
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कलाबत्तू  : पुं० [तु० कलाबतून] [वि० कलाबतूनी] १. रेशम पर चढ़ाया या लपेटा जानेवाला पतला, महीन, सुनहला तार। २. रेशम पर सुनहले तार लपेटकर बनाया हुआ डोरा या फीता।
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कलाबाज  : वि० [हिं० कला+फा० बाज] कलापूर्ण ढंग से अद्भुत शारीरिक खेल खिलानेवाला व्यक्ति।
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कलाबाजी  : स्त्री० [हिं० कला+फा० बाजी] १. कलाबाज की कोई क्रिया या खेल। २. सिर नीचे तथा पैर ऊपर करके उलट जाने की क्रिया या खेल। क्रि० प्र०—खाना।
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कलाबीन  : पुं० [देश०] असम देश का एक बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके फल चाल मुँगरा या मुँगरा चाल कहलाते हैं। (इसके फूलों का तेल चर्म रोग का नाशक माना गया है।)
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कलाभृत्  : पुं० [सं० कला√भृ (धारण करना)+क्विप्] चन्द्रमा।
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कलाम  : पुं० [अ०] १. वाक्य। २. उक्ति। कथन। ३. बात-चीत। वार्त्तालाप। ४. किसी काम या बात के लिए दिया जानेवाला वचन। वादा। ५. आपत्ति। एतराज।
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कलाम-मजीद  : पुं० [अ०] कुरान शरीफ। (मुसलमानों का धर्मग्रंथ)
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कलामोचा  : पुं० [देश०] बंगाल में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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कलाय  : पुं० [सं० कला√अय् (गति)+अण्] मटर।
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कलाय-खंज  : पुं० [ब० स०] एक रोग जिसमें जोड़ों की नसें ढीली पड़ जाती हैं और जिसके फलस्वरूप अंग सदा हिलते-डुलते रहते हैं।
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कलायन  : पुं० [कला-अयन, ब० स०] नर्तक।
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कलार  : पुं०=कलाल (कलवार)।
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कलारी  : स्त्री० [हिं० कलवार] १. कलवार जाति की स्त्री। २. वह स्थान जहाँ शराब बनाई या बेची जाती है। कलवरिया।
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कलाल  : पुं० [सं० कल्यपाल] [स्त्री० कलालिन] शराब बनाने और बेचनेवाली एक प्रसिद्ध जाति। कलवार।
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कलालखाना  : पुं० [हिं०+फा०] वह स्थान जहाँ शराब बनाई तथा बेची जाती है। मद्यशाला।
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कलाव  : पुं०=कलावा।
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कलावंत  : पुं० [सं० कलावान्] १. वह व्यक्ति जो किसी कला का अच्छा ज्ञाता या विशेषज्ञ हो। २. वह व्यक्ति जो कोई काम बहुत ही कलापूर्ण ढंग से करता हो। ३. मध्य युग के बहुत बड़े तथा प्रसिद्ध गवैये अथवा उनके वंशज। ४. कलाबाज।
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कलावती  : स्त्री० [सं० कला+मतुप्, ङीष्, वत्व] १. तुंबरु नामक गंधर्व की वीणा का नाम। २. तंत्र में एक प्रकार की दीक्षा। ३. गंगा का एक नाम। स्त्री० [हिं० कल (पानी की)] पानी की कल या उसमें से आनेवाली जलराशि। (परिहास) जैसे—कलावती में होनेवाला स्नान।
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कलावा  : पुं० [सं० कलापक, प्रा० कलावअ] [स्त्री० अल्पा० कलाई] १. सूत का लपेटा हुआ लच्छा। २. लाल, पीले आदि रंगों से रँगा हुआ सूत का डोरा या लच्छा जो मांगलिक अवसरों पर हाथ की कलाई में तथा घड़े आदि कुछ वस्तुओं पर बाँधा जाता है। ३. वह रस्सी जो हाथी के गले में पड़ी रहती है और जिसमें पैर फँसा कर महावत उसे हाँकते हैं।
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कलावान (वत्)  : वि० [सं० कला+मतुप्] [स्त्री० कलावती] किसी अथवा कई कलाओं का अच्छा ज्ञाता (व्यक्ति)।
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कलाविक  : पुं० [सं० कल-आ-वि√कै (शब्द)+क] मुर्गा।
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कलास  : पुं० [सं० कल√आस् (उपवेशन)+घञ्] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल।
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कलासी  : पुं० [सं० कला] १. दो वस्तुओं को सटाने अथवा सटाकर जोड़ने से बननेवाली रेखा जो उस जोड़ की सूचक होती है। २. जोड़-तोड़ या साट-गाँठ बैठाने की युक्ति। जैसे—यहाँ तुम्हारी कोई कलासी नहीं लगेगी।
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कलाहक  : पुं०=काहल (बड़ा ढोल)।
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कलि  : पुं० [सं०√कल् (गिनना)+इन्] १. पुराणानुसार चार युगों में से अंतिम युग जो इस समय चल रहा है। और जो नैतिक तथा धार्मिक दृष्टि से परम निकृष्ट कहा गया है। (दे० ‘कलियुग’) २. कलह, क्लेश, दुराचार, पाप आदि की सूचक संज्ञा। ३. पुराणानुसार क्रोध का एक पुत्र जो अहिंसा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और जिसके भय तथा मृत्यु नाम के दो पुत्र थे। ४. एक पौराणिक गंधर्व जाति जिसे जूआ खेलने का बहुत शौक था। ५. शिव का एक नाम। ६. पिंगल में टगण का एक भेद जिसमें क्रम से दो गुरु और तब दो लघु (ऽऽ।।) होते हैं। ७. तरकश। तूणीर। ८. पासे का वह पहल या पार्श्व जिस पर एक ही बिंदी होती है। ९. बहेडे़ का फल या बीज। वि० काला। श्याम। क्रि० वि० [हिं० कल=सुख] १. आराम या चैन से। सुखपूर्वक। उदा०—सुऐ तहाँ दिन दस कलि काटी।—जायसी। २. निश्चयपूर्वक। उदा०—कै कलि कस्यप कूख जानि उपज्यौ किरनाकर।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलि-कर्म  : पुं० [ष० त०] १. निंदनीय या बुरा काम। २. युद्ध। संग्राम।
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कलि-कारक  : वि० [ष० त०] १. झगड़ा करनेवाला। झगड़ालु। २. झगड़ा लगाने या वैर-विरोध करनेवाला। पुं० नारद मुनि का एक नाम।
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कलि-तरु  : पुं० [मध्य० स०] १. पाप रूपी वृक्ष। २. बबूल का पेड़।
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कलि-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] बहेड़े का पेड़।
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कलि-नाथ  : पुं० [ष० त०] संगीत के एक आचार्य का नाम।
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कलि-पुर  : पुं० [ष० त०] १. एक प्राचीन स्थान जहाँ पद्मराग या मानिक की प्रसिद्ध खान थी। २. उक्त स्थान का पद्मराग या मानिक।
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कलि-प्रिय  : वि० [ब० स०] १. झगड़ालू। २. दुष्ट या नीच प्रकृति का। पुं० १. नारद मुनि। २. बन्दर। ३. बहेड़े का पेड़।
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कलि-मल  : पुं० [ष० त०] १. कलुष। २. पाप।
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कलि-युग  : पुं० [मयू० स०] पुराणानुसार चार युगों में से चौथा युग जो आज-कल चल रहा है। विशेष—कहा जाता है कि इसका आरम्भ ईसा के स्वर्गारोहण से ३१॰२ वर्ष पूर्व हुआ था; और यह सब मिलकर ४३२॰॰॰ वर्षों तक रहेगा। यह भी कहा गया है कि इस युग में धर्म का एक ही चरण रह जायगा और इस में अधर्म तथा पाप की बहुत प्रवलता रहेगी।
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कलि-वर्ज्य  : वि० [स० त०] धर्म-शास्त्रों के अनुसार (काम या बात) जिसका अनुष्ठान या आचरण कलियुग में निषिद्ध या वर्जित हो० जैसे—अश्वमेघ, गोमेघ, मांस का पिंडदान, देवर से नियोग आदि बातें कलि-वर्ज्य हैं।
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कलिअल  : पुं० [सं० कल-कल] १. पक्षियों के चहकने का शब्द। २. कल-रव। मधुरध्वनि। उदा०—कूझड़ियाँ कलिअल कियउ।—छोलामारू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिक  : पुं० [सं० कल+ठन्—इक्] क्रौंच (पक्षी)।
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कलिका  : स्त्री० [सं० कलि+कन्, टाप्] १. फूल का आरंभिक बिना खिला हुआ अंकुरा। कली। २. एक प्रकार का पुराना बाजा सिर पर चमड़ा मढ़ा होता था। वीणा का सब से नीचेवाला भाग। ४. संस्कृत में एक विशिष्ट प्रकार की पद—रचना, जो ताल और लय से युक्त होती है। ५. कलौंजी या मँगरैला नामक दाने या बीज। ६. बहुत छोटा अंश या भाग। ७. समय का वह बहुत छोटा भाग, जिसे कला या मुहूर्त कहते हैं।
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कलिकान  : वि० [?] हैरान। परेशान। स्त्री०=कलिकानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिकानी  : स्त्री० [?] परेशानी। हैरानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिकापूर्व  : पुं० [कलिका-अपूर्व, मध्य० स०] कोई ऐसी बात जिसके आदि और अन्त अथवा अस्तित्व, मूल आदि का कुछ भी ज्ञान या निश्चय न हो। जैसे—जन्म, मृत्यु, स्वर्ग आदि।
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कलिकारी  : स्त्री० [सं० कलि+कृ (करना)+अण्—ङीप्] कलियारी विष।
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कलिकाल  : पुं० [मयु० स०] कलियुग।
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कलिंग  : पुं० [सं० कलि√गम् (जाना)+ड] १. आधुनिक आंध्रप्रदेश के उस भाग का प्राचीन नाम जो समुद्र के किनारे-किनारे कटक से मद्रास तक फैला है। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. सिरिस का पेड़। ४. पाकर वृक्ष। ५. तरबूजे। ६. कुटज। कुरैया। ७. कलिंगड़ा नामक राग। वि० कलिंग देश का।
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कलिंगड़ा  : पुं० [सं० कलिंग] रात के चौथे पर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एक राग।
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कलिंगा  : पुं० [सं० कलिंग] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी छाल रेचक होती है। तेवरी।
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कलिंज  : पुं० [सं० क√लंज् (तिरस्कार करना)+अण्, नि० सिद्धि] नरकट (वनस्पति)।
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कलिंजर  : पुं०=कालिंजर।
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कलिजुग  : पुं०=कलियुग।
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कलित  : वि० [सं०√कल्+क्त] १. धीरे से अथवा अस्पष्ट रूप से कहा हुआ। २. जिसका कलन (ज्ञान या परिचय) हो चुका हो। जाना हुआ। ज्ञात। विदित। ३. ग्रहण या प्राप्त किया हुआ। ४. सजाया हुआ। सज्जित। ५. मनोहर। सुंदर।
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कलिंद  : पुं० [सं० कलि√दा (देना)+खच्, मुम्] १. सूर्य। २. हिमालय की वह चोटी जिससे यमुना नदी निकलती है। ३. तरबूज। ४. बहेड़ा।
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कलिंद-तनया  : स्त्री० [सं० ष० त०]=कलिंदजा।
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कलिंदजा  : स्त्री० [सं० कलिंद√जन् (पैदा होना)+ड—टाप्] कलिंग पर्वत की पुत्री अर्थात् उससे निकली हुई युमना नदी।
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कलिंदी  : स्त्री०=कालिंदी (युमना नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिमल-सरि  : स्त्री० [प० त०] कर्मनाशा नदी।
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कलिया  : पुं० [अं० कलियः] १. पशुओं का वह कच्चा मांस जो पकाकर खाया जाता हो। २. खाने के लिए पकाया हुआ मांस।
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कलियाना  : अ० [हिं० कली] १. (पौधे या वृक्षों में) नई कलियाँ लगना। २. (पक्षियों का) नये परों से युक्त होना।
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कलियारी  : स्त्री० [सं० कलिहारी] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ की गाँठ बहुत जहरीली होती है।
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कलियुगाद्या  : पुं० [कलियुग-आद्या, ष० त०] माघ की पूर्णिमा जिसमें कलियुग का आरंभ माना गया है।
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कलियुगी (गिन्)  : वि० [सं० कलियुग+इनि] १. कलियुग में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. जिसमें कलियुग के गुण या विशेषताएँ (झूठ, पाप, बेईमानी आदि बातें ) मुख्य या स्पष्ट रूप से हों।
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कलिल  : वि० [सं०√कल्+इलच्] १. मिला-जुला। मिश्रित। २. घना। ३. गहन। दुर्गम। पुं० १. ढेर। राशि। २. झुंड। समूह।
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कलिहारी  : स्त्री० [सं० कलि√हृ (हरण करना)+अण्—ङीष्] कलियारी (पौधा)। वि० [सं० कलह+हारी (ा) प्रत्य०] बहुत अधिक झगड़ा करनेवाली। (स्त्री)।
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कली  : स्त्री० [सं० कलि+ङीष्] १. फूल का वह आरंभिक तथा अविकसित रूप जिसमें पंखड़ियाँ अभी खिली या खुली न हों। मुहा०—दिल की कली खिलना=अभिलाषा या लालसा पूरी होने पर बहुत अधिक प्रसन्न होना। २. वैष्णवों का एक प्रकार का तिलक जो देखने में फूल की कली की तरह का होता है। ३. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी किशोरी जिसका यौवन अभी पूर्ण रूप से विकसित न हुआ हो। पद—कच्ची कली। ४. चिड़ियों के नये निकले हुए छोटे पर। ५. कपड़े का कटा हुआ वह लंबोतरा तिकोना टुकड़ा, जो सीये जानेवाले कपड़ों को अधिक खुला तथा विस्तृत बनाने के लिए उसके जोड़ों के साथ टाँका जाता है। जैसे—अँगिया या कुरते की कली। ६. हुक्के का वह नीचेवाला भाग जिसमें पानी रहता है और जिसके ऊपर गड़गड़ा लगा रहता है। स्त्री० [अ० कलई] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के पत्थरों के टुकड़ों के फूँके जाने पर बननेवाले चूने के ढोंके। २. दे० ‘कलई’।
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कलीट  : वि० [हिं० काला] काला-कलूटा (व्यक्ति)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलीत  : वि०=कलित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलींदा  : पुं० [सं० कलिंग] तरबूज।
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कलीरा  : पुं० [सं० कली+हिं० रा (प्रत्य०)] कौड़ियों, गरी के गोलों, छुहारों आदि को पिरोकर बनाई हुई माला जो त्योहार, विवाह आदि के समय भेंट दी जाती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलील  : वि० [अ० क़लील] [भाव० किल्लत] मान या मात्रा में बहुत कम। अल्प। थोड़ा।
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कलीसा  : पुं० [यू० इकलीसिया] मसीही लोगों का उपासना-गृह। गिरिजा।
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कलीसाई  : वि० [हिं० कलीसा] मसीही-संबंधी। मसीही। पुं० ईसा मसीह के मत के अनुयायी। ईसाई। मसीही।
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कलीसिया  : पुं० [यू० इकलीसिया] मसीही लोगों की धर्ममंडली या धार्मिक समुदाय।
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कलुआबीर  : पुं० [हिं० कलुआ=काला+बीर] ओझाओं या झाड़-फूँक करनेवालों की एक कल्पित प्रेतात्मा।
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कलुख  : पुं०=कलुष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलुखाई  : स्त्री०=कलुष।
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कलुखी  : वि०=कलुषी। स्त्री०=कलुष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलुष  : पुं० [सं०√कल्+उपच्] [षि० कलुषित, कलुषी] १. काले अर्थात् दूषित या मलिन होने की अवस्था या भाव। मलिनता। मैल। जैसे—मन का कलुष। २. अपवित्रता। ३. कोई बुरी बात या दूषित भाव। ऐब। दोष। ४. पातक। पाप। ५. क्रोध। गुस्सा। ६. भैंसा। ७. कलंक। बदनामी। वि० [स्त्री० कलुषा, कलुषी] १. गँदला। मैला। २. गर्हित। निंदनीय। बुरा। ३. दोषी। ४. पापी।
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कलुष-चेता (तस्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. जिसके मन में कलुष या पाप हो। २. जिसकी प्रवृत्ति बराबर बुरे कामों की ओर रहती हो।
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कलुष-योनि  : पुं० [ब० स०] वर्णसंकर। दोगला।
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कलुषाई  : स्त्री० [सं० कलुष+हिं० आई प्रत्य०] १. बुद्धि की मलिनता। २. अपवित्रता। अशुद्धता।
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कलुषित  : वि० [सं० कलुष+इतच्] १. जो कलुष से युक्त हो। गंदा और मैला। २. अपवित्रता। ३. खराब। निंदित। बुरा। ४. दुःखी ५. क्षुब्ध। ६. काला। कृष्ण।
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कलुषी  : (षिन्) वि० [सं० कलुष+इनि] १. (व्यक्ति) जो मानसिक या शारीरिक दृष्टि से अपवित्र या मलिन हो। २. दोषी। ३. पापी।
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कलूटा  : वि० [हिं० काला+टा (प्रत्य०)] [स्त्री० कलूटी] जिसका वर्ण घोर काला हो। पद—काला-कलूटा=बहुत अधिक या बिलकुल काला।
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कलूना  : पुं० [देश०] पंजाब में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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कलूला  : पुं०=कुल्ला (मुँह से निकाला हुआ पानी)।
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कलेऊ  : पुं०=कलेवा।
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कलेजई  : पुं० [हिं० कलेजा] कसीस; मजीठ, हर्रे आदि के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार का रंग। चुनौटिया। वि० उक्त रंग का। उक्त रंग-संबंधी।
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कलेजा  : पुं० [सं० यकृत से विपर्यय के कारण कृत्य, प्रा० कृज्ज] १. जंतुओं और मनुष्यों के धड़ के अन्दर का एक विशिष्ट अंग जो प्रायः पान के आकार का होता और भाथी की तरह सदा उभरता और दबता रहता है। और जिसकी इस क्रिया के फलस्वरूप सारे शरीर में रक्त का संचार होता है। हृदय। (हार्ट) विशेष—शरीर के इसी अंग में मन का निवास माना जाता है; इसलिए कुछ अवस्थाओं में और प्रायः मुहावरों में इसका अर्थ (क) मन या हृदय (ख) उदारता, प्रेम आदि तथा (ग) जीव तथा साहस भी होता है। जैसे—(क) जी चाहता है कि तुम्हें कलेजे में रख लूँ। (ख) जरा जी कड़ा करके यह काम कर डालो। मुहा०—कलेजा उछलना=किसी आकस्मिक और प्रबल मनोविकार (जैसे—प्रसन्नता, भय आदि) अथवा मानसिक आघात आदि के कारण उक्त अंग का जल्दी-जल्दी और जोर से चलने लगना। कलेजा उड़नाँ=आशंका, भय या विकलता के कारण होश ठिकाने न रहना। सुध-बुध भूल जाना। कलेजा उलटना=पीड़ा, रोग आदि के कारण ऐसा जान पड़ना कि अब उक्त अंग का काम बंद हो जायगा अर्थात् मृत्यु हो जायगी। कलेजा काँपना=बहुत भयभीत होने के कारण जी दहलना। कलेजा काढ़कर रख देना=अपने आपको सब प्रकार से किसी के लिए निछावर कर देना। कलेजा खानाँ=किसी को इतना तंग या दिक करना कि वह परेशान हो जाय। कलेजा छेदना या बींधनाँ=बहुत कठोर या चुभती हुई बातें कहकर मर्मबेधी आघात करना। कलेजा छलनी होना=बहुत अधिक कष्ट के कारण ऐसी स्थिति होना कि मानों कलेजे में जगह-जगह बहुत-से छेद हो गये हों। जैसे—किसी की गालियों या शापों से या बार-बार के मानसिक कष्ट या दुःख के कारण विशेष संताप होना। कलेजा टूटना या टुकड़े-टुकड़े होना=(क) बहुत अधिक मानसिक कष्य या संताप होना। (ख) उत्साह या साहस न रह जाना। कलेजा ठंडा या तर होना=अभिलाषा या इच्छा पूरी होने के कारण तृप्ति, शांति या संतोष होना। कलेजा थामकर बैठ या रह जाना=प्रबल मानसिक आघात के कारण कुछ करने-धरने में असमर्थ हो जाना। कलेजा बहलना=बहुत भयभीत होने के कारण अस्थिर तथा विकल होना। कलेजा धकधक करना=कलेजा धड़कना। कलेजा धक से हो जाना=सहसा कोई अनिष्ट बात सुनने से कुछ समय के लिए हृदय की गति रुक जाना। कलेजा धड़कनाँ=आशंका, भय, रोग आदि के कारण कलेजे में धड़कन होना। कलेजा निकलना=कष्ट, वेदना आदि के कारण ऐसा जान पड़ना कि शरीर के अन्दर कलेजा रह ही नहीं गया। (किसी के आगे) कलेजा निकाल कर रखना या रख देना=(दे०) कलेजा काढ़कर रख देना। (किसी का) कलेजा निकालना=(क) किसी की परम प्रिय वस्तु या सर्वस्व-हरण करना। (ख) बहुत अधिक, कष्ट पहुँचाना। व्यथिक करना। कलेजा पक जाना=कष्ट या दुःख सहते-सहते बहुत ही अधीर या असमर्थ और विकल हो जाना। कलेजा पसीजना=किसी को दुःखी देखकर दयार्द्र होना। हृदय-द्रवित होना। कलेजा फटना=बहुत अधिक मार्मिक कष्ट या वेदना होना। कलेजा बैठ जानाँ=मानसिक आघात आदि के कारण अक्रिय और असमर्थ-सा हो जाना। कलेजा बैठा जाना=ऐसा जान पड़ना कि अब प्राण न बचेंगे। (अपना) कलेजा मलना=मानसिक आघात या प्रहार होने पर अपने मन को धीरज बँधाने के लिए उस पर हाथ फेरना। (किसी का) कलेजा मलना=किसी को बहुत अधिक कष्ट पहुँचाना या दुःखी करना। कलेजा मसोस कर रह जाना=बहुत कुछ चाहते हुए भी असमर्थ या विवश होने के कारण कुछ कर न सकना। परम असमर्थता का अनुभव करना। कलेजा मुँह को आना=बहुत अधिक विकलता के कारण ऐसा जान पड़ना कि अब हम न बचेंगे। बहुत अधिक चिंतित और दुःखी होना। कलेजा सुलगना=मानसिक कष्ट या क्लेश के कारण मन का निरंतर खिन्न और दुःखी रहना। कलेजा हिलना=कलेजा दहलना। कलेजे पर साँप लोटना=किसी अप्रिय या असह्य घटना के कारण बहुत अधिक मानसिक कष्ट होना। कलेजे पर हाथ धर (या रख) कर देखना=अंतरात्मा या विवेक का ध्यान रखते हुए न्याय या सत्य की ओर ध्यान देना। कलेजे में आग लगना=बहुत अधिक हार्दिक कष्ट या दुःख होना। (किसी के) कलेजे में पैठना या घुसना=किसी के मन की थाह लेने के लिए उससे मेल-जोल बढ़ाना। पद—पत्थर का कलेजा=(क) ऐसा हृदय जो किसी का दुःख देखकर पसीजता न हो। (व्यक्ति) जिसमें दया, ममता या सहानुभूति न हो। (ख) ऐसा हृदय जो कष्ट सहने में यथेष्ट समर्थ हो। कलेजे का टुकड़ा=परम प्रिय वस्तु या व्यक्ति। २. उक्त अंग का ऊपरी या बाहरी भाग। छाती। वक्षस्थल। मुहा०—कलेजे से लगाकर रखना=बहुत ही प्रेम, यत्न या स्नेह से बराबर अपने पास या साथ रखना। ३. जीवट। साहस। हिम्मत। मुहा०—कलेजा बढ़ जाना=साहस या हिम्मत बढ़ जाना।
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कलेजी  : स्त्री० [हिं० कलेजा] १. पशु-पक्षियों के कलेजे का मांस, जो खाने में स्वादिष्ट माना जाता है। २. उक्त मांस की बनी हुई तरकारी या सालन।
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कलेवर  : पुं० [सं० अलुक् स०] १. मनुष्य के शरीर का सारा ऊपरी या बाहरी भाग (आत्मा, प्राण आदि से भिन्न)। चोला। देह। शरीर। मुहा०—कलेवर चढ़ाना=गणेश, महावीर आदि देवताओं की मूर्ति पर घी में मिले सेंदुर का इस प्रकार लेप करना कि उनके सारे शरीर पर एक नया स्तर चढ़ जाय। कलेवर बदलना=(क) एक शरीर त्याग कर दूसरा शरीर धारण करना। चोला बदलना। (ख) पुराना रूप छोड़ कर बिलकुल नया रूप धारण करना। (ग) उपचार, चिकित्सा आदि से रोगी शरीर का पूर्ण रूप से नीरोग होना। (घ) हर बारहवें वर्ष अथवा आषाढ़ में मल-मास होने पर जगन्नाथजी की पुरानी मूर्ति का हटाया जाना और उसके स्थान पर नई मूर्ति का स्थापित होना। २. ऊपरी या बाहरी ढाँचा।
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कलेवा  : पुं० [सं० कल्यवर्त, प्रा० कल्लवह] १. सवेरे किया जाने वाला जलपान या हलका भोजन। मुहा०—कलेवा करना=बहुत ही तुच्छ या साधारण समझ कर खा या निगल जाना। २. वह भोजन जो यात्री कहीं जाने के समय रास्ते के लिए अपने साथ रख लेते हैं। ३. विवाह के बाद की एक रसम जिसमें वर अपने साथियों के साथ ससुराल में जल-पान या भोजन करने जाता है। खिचड़ी।
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कलेस  : पुं०=क्लेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलेसुर  : पुं०=कलसिरा।
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कलै  : पुं० [सं० कल] १. अवसर। २. इच्छा। उदा०—बरषै हरषि आपनै कलै।—नंददास। क्रि० वि० १. कल या चैन से। २. अपनी अच्छा से। स्वेच्छापूर्वक।
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कलोर  : स्त्री० [सं० कल्या ?] ऐसी जवान बछिया (गौ) जो अभी गाभिन न हुई हो।
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कलोल  : स्त्री० [सं० कल्लोल] आमोद-प्रमोद या क्रीड़ा के लिए की जाने वाली थोड़ी-बहुत उछल-कूद।
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कलोलना  : अ० [हिं० कलोल] कलोल या क्रीड़ा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलौंछ  : स्त्री०=कलौंस।
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कलौंजी  : स्त्री० [सं० काला-जाजी] १. एक प्रकार का पौधा, जिसके बीज ‘मंगरैला’ कहलाते और मसाले के काम में आते हैं। २. मँगरैला नामका मसाला। ३. समूचे करेले, परवल, बैंगन आदि का वह रूप जो उनके अन्दर मिर्च-मसाले भर कर और उन्हें घी या तेल में तलने या भूनने पर प्राप्त होता है।
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कलौंस  : स्त्री० [हिं० काला+औंस (प्रत्य०)] १. हलका कालापन। हलकी कालिमा। २. कलंक। वि० जिसका रंग कुछ हलका काला हो।
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कल्क  : पुं० [सं०√कल् (गति)+क] १. किसी चीज का बारीक चूरा। पूर्ण। बुकनी। २. पीठी। ३. अवलेह। चटनी। ४. गूदा। ५. पाखंड। ६. दुष्टता। शठता। ७. मल। ८. मैल। ९. गृह। विष्ठा। १॰. पाप। ११. बहेड़ा।
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कल्क-फल  : पुं० [ब० स०] अनार।
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कल्की (ल्किन्)  : पुं० [सं० कल्क+इनि] कलियुग के अन्त में कुमारी कन्या के गर्भ से जन्म लेनेवाला विष्णु का भावी दसवाँ अवतार। (पुराण)
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कल्प  : पुं० [सं०√कृप् (कल्पना+णिच्+अच् वा घञ्] १. मांगलिक और शुभ कृत्य, नियम तथा विधि-विधान। (विशेषतः वेदों में बतलाये हुए) २. वेदों के छः अंगों में से एक, जिसमें बलिदान, यज्ञ आदि से संबंध रखनेवाली विधियाँ बतलाई गई हैं। ३. हिंदू पंचांग के अनुसार काल या समय का एक बहुत बड़ा विभाग जो एक हजार महायुगों अर्थात् ४ अरब ३२ करोड़ मानव वर्षों का कहा गया है। विशेष—हमारे यहाँ प्रत्येक कल्प ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है, और ऐसे ३६॰ दिनों का ब्रह्मा का एक वर्ष होता है। कहते हैं कि अब तक ब्रह्मा के ऐसे ५॰ वर्ष बीत चुके हैं; और आज कल ५१ वें वर्ष के पहले महीने का पहला दिन चल रहा है, जिसका नाम श्वेत वाराह कल्प है। ऐसे प्रत्येक कल्प में एक हजार महायुग होते हैं; और प्रत्येक महायुग के चार अलग-अलग विभाग ही युग कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प के अन्त में, जिसे कल्पांत कहते हैं, भौतिक सृष्टि का अंत या प्रलय होता है। ४. आधुनिक पुरा-शास्त्र और भू-शास्त्र के क्षेत्रों में, करोड़ों अरबों वर्षों का वह विशिष्ट काल-विभाग, जो कई युगों में विभक्त रहता है और जिसमें पृथ्वी की कुछ स्वतन्त्र प्रकार की विकासात्मक स्थितियाँ होती हैं। (एरा) जैसे—आदि कल्प, उत्तर कल्प, मध्य कल्प, नव कल्प (देखें)। विशेष—ये नामकरण हमारे यहाँ के पुराने कल्पों और युगों के आधार पर ही हुए हैं। पर आधुनिक वैज्ञानिक एक तो इनकी उस प्रकार की पुनरावृत्ति नहीं मानते, जिस प्रकार की हिंदू पंचांग में मानी गई है; दूसरे वे अपने कल्पों और युगों के लक्षण पृथ्वी के विशुद्ध विकासात्मक रूपों या विभागों की दृष्टि से स्थिर करते हैं। ५. प्रलय। ६. ग्रंथों आदि का कोई प्रकरण या विभाग। ७. मनुष्य का शरीर। ८. वैद्यक में ऐसा उपचार या चिकित्सा जो सारे शरीर अथवा उसके किसी अंग को बिलकुल नये सिरे से ठीक या पूरी तरह से नीरोग तथा स्वस्थ करने के लिए की जाती है। जैसे—कायाकल्प, नेत्रकल्प आदि। ९. एक प्रकार का नृत्य। १॰. दे० ‘कल्पवृक्ष’। वि० जो यथेष्ट, पूर्ण या वास्तविक न होने पर भी बहुत कुछ किसी दूसरे की बराबरी का या समान हो। तुल्य, समान (यौ० के अन्त में)। जैसे—ऋषिकल्प, देवकल्प।
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कल्प-तरु  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-पादप  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-भव  : पुं० [ब० स०] जैन-शास्त्रानुसार जैनों में एक प्रकार के देवगण जो संख्या में बारह हैं।
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कल्प-लता (लतिका)  : स्त्री० [ष० त०] १. कल्पवृक्ष। २. हठयोग में उन्मनी मुद्रा; अर्थात् मन को परमात्मा में लगाने की अवस्था।
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कल्प-वास  : पुं० [मध्य० स०] माघ महीने में गंगा-तट पर संयमपूर्वक निवास करना।
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कल्प-विटप  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. पुराणानुसार स्वर्ग का एक वृक्ष जिसकी छाया में पहुँचते ही सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बहुत उदारतापूर्वक सहायता करता हो। बहुत बड़ा दानी। ३. एक प्रकार का वृक्ष जो बहुत अधिक ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है।
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कल्प-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह सूत्र ग्रंथ, जिस में यज्ञादि कार्यों तथा गृह्य कर्मों का विधान हो।
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कल्प-हिंसा  : स्त्री० [मध्य० स०] वह हिंसा जो अन्न पकाने, पीसने आदि के समय होती है। (जैन) विशेष—यह हिंदुओं के पंचसूना के ही समान है।
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कल्पक  : वि० [सं० कल्प से] १. कल्प-संबंधी। २. वेदों में बतलाये हुए नियमों, विधि-विधानों आदि के अनुसार होनेवाला। वि० [सं० कल्पन से] १. कल्पना-संबंधी। २. कल्पना करनेवाला। पुं० [√कृप्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. नाई। हज्जाम। २. कूचर।
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कल्पकार  : वि० [सं० कल्प√कृ (करना)+अण्] १. विधि-विधानों आदि की रचना करनेवाला। २. कल्प-शास्त्र का रचनेवाला। गृह्य श्रौत सूत्र का रचयिता। जैसे—कल्पकार ऋषि का मत है।
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कल्पन  : पुं० [सं०√कृप्+णिच्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु को बनाने, रचने अथवा उसे कोई दूसरा रूप देने की क्रिया या भाव। २. किसी अमूर्त्त भावना या विचार को कल्पना के आधार पर मूर्त्त रूप देना। कल्पना करना। ३. धारदार औजारों से कतरना तथा काटना। ४. वह चीज जो सजावट के लिए किसी दूसरी चीज पर बैठाई या लगाई जाय।
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कल्पनक  : वि० [सं० कल्पना से] १. कल्पना से युक्त (कार्य)। २. (व्यक्ति) जिसकी कल्पना-शक्ति बहुत प्रबल हो अथवा जो सदा कल्पना करता रहता हो।
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कल्पना  : स्त्री० [सं० कृप्+णिच्+यच्—अन, टाप्] १. किसी वस्तु को बनाना या रचना। विशेष दे० ‘कल्पन’। २. वह क्रियात्मक मानसिक, शक्ति, जिसके द्वारा मनुष्य अनोखी और नई बातों या वस्तुओं की प्रतिमाएँ या रूप-रेखाएँ अपने मानस-पटल पर बनाकर उनकी अभिव्यक्ति काव्यों, चित्रों, प्रतिमाओं आदि के रूप में अथवा और किसी प्रकार के मूर्त्त रूप में करता है। (इमैजिनेशन) ३. उक्त प्रकार से प्रस्तुत की हुई कृति या रूप-रेखा। ४. गणित में कुछ समय के लिए किसी मात्रा या राशि को वास्तविक या सत्य मान लेना। (सपोजीशन) ५. मनगढ़ंत बात। पद—कोरी कल्पना=ऐसी कल्पित बात, जिसका कोई आधार न हो। अ० स०=कल्पना।
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कल्पनी  : स्त्री० [सं० कल्पन+ङीष्] कतरनी। कैंची।
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कल्पनीय  : वि० [सं०√कृप्+णिच्+अनीयर्] जिसकी कल्पना की जा सकती हो। कल्पना में आने के योग्य। (इमैजिनेबुल)
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कल्पशाखी (खिन्)  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्पांत  : पुं० [कल्प-अन्त, ष० त०] सृष्टि के जीवन में प्रत्येक कल्प का अंत जिसमें प्रलय होता है और सभी जीवधारियों का अंत हो जाता है।
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कल्पित  : वि० [सं०√कृप्+णिच्+क्त] १. जिसकी कल्पना की गई हो। कल्पना के आधार पर प्रस्तुत किया हुआ। २. कुछ समय के लिए अथवा यों ही काम चलाने के लिए वास्तविक या सत्य माना हुआ। ३. मन गढ़ंत। ४. नकली। बनावटी।
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कल्पितोपमा  : स्त्री० [कल्पित-उपमा कर्म० स०] उपमालंकार का एक भेद, जिसमें कवि उपमेय के लिए कोई उपयुक्त उपमान न मिलने पर किसी कल्पित उपमान से उसकी उपमा दे देता है। इसे ‘अभूतोपमा’ भी कहते हैं।
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कल्फा  : पुं० [फा० कफ=झाग, गाज] १. अफीम का पसेव जिससे मदक बनता है। २. वह कपड़ा जिस पर (मदक बनाने के लिए) अफीम फैलाते हैं।
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कल्ब  : पुं० [अ०] १. हृदय। दिल। २. किसी वस्तु का मध्य भाग। विशेषतः सेना का मध्य भाग। ३. बुद्धि। ४. खोटी चाँदी या सोना।।
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कल्मष  : पुं० [सं० कर्मन्√पी (नष्ट करना)+क, र=ल] १. ऐसा कार्य जिससे किसी पवित्र या शुभ कार्य का महत्त्व नष्ट हो जाय। अघ। पाप। २. मल। मैल। ३. दोष। बुराई। ४. पीव। मवाद। ५. एक नरक का नाम।
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कल्माष  : वि० [सं०√कल्+क्विप्,√मष् (हिंसा)+णिच्—अच] रंग-बिरंगा विशेषतः सफेद और काले रंग के चिह्नों या धब्बोंवाला। जो कुछ सफेद और कुछ काला हो। चितकबरा। पुं० १. उक्त रंग। २. अग्नि का वह रूप। ३. राक्षस।
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कल्माषी  : स्त्री० [सं० कल्माष+ङीष्] यमुना नदी का एक नाम।
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कल्य  : वि० [सं०√कल् (गीत)+यत्] १. जिसे किसी प्रकार का रोग न हो। नीरोग। स्वस्थ। हट्टा-कट्टा। २. चतुर। होशियार। ३. कुशल। दक्ष। ४. मंगलकारक। शुभ। ५. गूँगा और बहरा। पुं० १. स्वास्थ्य। २. प्रातःकाल। सवेरा। ३. आनेवाला दिन। ४. बीता हुआ दिन। कल। ५. मदिरा। शराब। ६. मंगल-कामना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्यपाल  : पुं० [सं० कल्य√पाल् (पालना)+णिच्+अण्] [स्त्री० कल्यपाली] मंदिरा या शराब त्रुआने तथा बेचनेवाला व्यक्ति।
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कल्यवर्त्त  : पुं० [सं० कल्य√वृत् (बरतना)+णिच्+अप्] सवेरे किया जानेवाला जलपान। कलेवा।
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कल्या  : स्त्री० [सं०√कल्+णिच्+यक्—टाप्] १. मदिरा। शराब। २. हरीतकी या हरें का पौधा। ३. बघाई। ४. वह बछिया जो बरदाने के योग्य हो गई हो। कलोर। ५. बड़ी या मुख्य नहर। कुल्या। (मेन कनाल)
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कल्याण  : पुं० [सं० कल्य√अण् (शब्द करना)+घञ्] १. सब प्रकार से होनेवाली भलाई तथा समृद्धि। २. शुभ-कर्म। ३. सोना। ४. संगीत में, संपूर्ण जाति का एक राग जो किसी के मत से श्रीराग का और किसी के मत से मेघराग का पुत्र है तथा जिसके गाने का समय रात का पहला पहर है।
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कल्याण-कामोद  : पुं० [द्व० स०] कल्याण और कामोद के मेल से बना हुआ एक संकर राग। (संगीत)
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कल्याण-नट  : [द्व० स०] कल्याण और नट के मेल से बना हुआ एक संकर राग। (संगीत)
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कल्याण-भार्य  : पुं० [ब० स०] ऐसा व्यक्ति जिसकी कई पत्नियाँ मर चुकी हों; अथवा जिसका विवाह होने पर कुछ ही दिनों में पत्नी मर जाती हो।
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कल्याणक  : वि० [सं० कल्याण+कन्]=कल्याणकर।
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कल्याणकर  : वि० [सं० कल्याण√कृ+ट] कल्याण करनेवाला।
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कल्याणकारी (रिन्)  : वि० [सं० कल्याण√कृ+णिनि] [स्त्री० कल्याणकारिणी] कल्याण या मंगल करनेवाला। शुभ।
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कल्याणी  : वि० [सं० कल्याण+ङीष्] १. कल्याण या मंगल करनेवाली। २. भाग्यशालिनी। ३. रूपवती। सुन्दरी। स्त्री० १. कामधेनु। २. गाय। गौ। ३. एक देवी का नाम। ४. माषपर्णी।
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कल्यान  : पुं=कल्याण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्यापाल  : पुं०=कल्यपाल।
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कल्योना  : पुं०=कलेवा (जलपान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्ल  : वि० [सं०√कल्ल (शब्द)+अच्] बहरा। पुं० १. बहरापन। २. शब्दों का अस्पष्ट उच्चारण।
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कल्लर  : पुं० [?] स्त्री० कल्लरिन, कलरिन] १. एक जाति जिसके पुरुष और स्त्रियाँ छोटे-छोटे व्यापारों के सिवा शरीर में जोंक लगाने का भी काम करती हैं। २. ऊसर जमीन। ३. नोनी मिट्टी। लोना। ४. रेह। ५. भिखारी। (क्व०)।
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कल्लह  : पुं०=कल्ला (जबड़ा)। स्त्री० कलह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्ला  : पुं० [सं० करौर] १. पेड़-पौधों आदि में निकलनेवाले पत्ते, फल या फूल का आरंभिक रूप। अंकुर। पुं० [सं० कुल्य] वह छोटा कूआँ या गड्ढा जिसके पानी से पान का भीटा सींचा जाता है। १. पुं० [फा० कल्लः] गाल का भीतरी भाग। जबड़ा। मुहा०—कल्ला चलना=(क) भोजन होना। मुँह चलना। (ख) मुँह से बहुत बातें निकलना। जबान चलना। किसी का कल्ला दबाना=बहुत बोलने से रोकना। कल्ला फुलाना=मुँह की ऐसी आकृति बनाना जिससे अप्रसन्नता या रोष सूचित हो। मुँह फुलाना। कल्ला मारना=(क) बहुत बढ़-चढ़कर या उद्दंडतापूर्वक बातें करना। (ख) डींग हाँकना। शेखी बघारना। २. दाढ़। ३. जबड़े से गले तक का अंश। जैसे—कल्ले तो मुस्करा ही रहे हैं।—वृंदावनलाल वर्मा। ४. पशु के उक्त स्थान का मांस। (कसाई)। ५. लंप का ऊपरी वह जालीदार भाग जिसमें बत्ती जलती है (बर्नर)। पुं०=कलह।
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कल्लाँच  : वि० [तु० कल्लाच] १. गुंडा। बदमाश। लुच्चा। २. परम दरिद्र। कंगाल।
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कल्लातोड़  : वि० [हिं० कल्ला+तोड़ना] १. (व्यक्ति) जिसमें प्रबल आघात करने की शक्ति हो। २. (उत्तर या बात) जिसके आगे किसी का मुँह बन्द हो जाय। ३. पूरी तरह से दबा लेनेवाला। प्रबल। विकट।
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कल्लादराज  : वि० [फा०] [भाव० कल्लादराजी, कल्लेदराजी] उद्दंडतापूर्वक और बहुत बढ़-बढ़कर बातें करनेवाला। मुँहजोर। वाचाल।
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कल्लादराजी  : स्त्री० [फा०] उद्दंडतापूर्वक और बहुत बढ़-बढ़कर बातें करना। मुँहजोरी। वाचालता।
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कल्लाना  : अ० [सं० कड् या कल्=संज्ञाशून्य होना] १. आघात, पीड़ा आदि के कारण शरीर के किसी अंग में जलन और सनसनी होना। जैसे—थप्पड़ लगने से गाल कल्लाना। २. (मन में) रह-रहकर दुःख या व्यथा होना। जैसे—जी कल्लाना।
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कल्लि  : स्त्री०=कली (फूल की)।
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कल्लू  : वि० [हिं० काला] (व्यक्ति) जिसका रंग बहुत अधिक काला हो। (उपेक्षा तथा व्यंग्य का सूचक) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्लेदराज  : वि०=कल्लादराज़।
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कल्लेदराजी  : स्त्री०=कल्लादराज़ी।
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कल्लोल  : पुं० [सं०√कल्ल (शब्द करना)+ओलच्] १. जल की तरंग। लहर। हिलोर। २. मन की लहर। मौज। ३. विपक्षी। शत्रु।
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कल्लोलना  : अ०=कलोलना। उदा०—सहज बैर बिसराइ आइ कलकुल कल्लोलत।—रत्ना०।
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कल्लोलिनी  : स्त्री० [सं० कल्लोल+इनि, ङीष्] नदी, जिसमें तरंगें उठती हों।
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कल्ह  : पुं०=कल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्हक  : स्त्री० [देश०] कबूतर के आकार की लाल रंग की एक प्रकार की चिड़िया।
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कल्हण  : पुं० [अपभ्रंश] संस्कृत के एक प्रसिद्ध कश्मीरी कवि और पंडित जो राजतरंगिणी नामक ग्रंथ के रचयिता थे।
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कल्हर  : पुं०=कल्लर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्हरना  : अ० [हिं० कल्हारना का अ० रूप] कड़ाही में कल्हारा जाना। कड़ाही में या तवे पर तला जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्हार  : स्त्री० [हिं० कल्हाराना] कल्हारने की क्रिया, ढंग या भाव। पुं० [सं० कह्लार] १. एक प्रकार का पौधा और उसके फूल। २. कमल।
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कल्हारना  : स० [हिं०] कड़ाही में डालकर या तवे पर रखकर कोई चीज तलना, छानना या भूनना। अ०=कराहना। अ० [सं० कल्ल=शोर] चिल्लाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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