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कू  : स्त्री० [सं०√कू(शब्द)+क्विप्] पिशाची।
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कूआँ  : पुं० [सं० कूप, कूप, गु० कुवो० सि० खुहु, का० कुह्० पं० खूह ने० कुआ, बं० उ० कूआ, मरा० कुवा] १. पानी निकालने के लिए जमीन में खोदा हुआ गहरा तथा गोल गड्ढा। मुहावरा—कूँआ खोदना=जीविका-निर्वाह के लिए परिश्रम और प्रयत्न करना। जैसे—यहाँ तो नित्य कुआँ खोदना और नित्य पानी पीना है। कूआँ चलाना=खेत सींचने के लिए कूएँ से पानी निकालना। कुआँ झाँकना=किसी खोज या प्रयत्न में चारों=ओर मारे-मारे फिरना। दौड़-धूप करना। कुएँ की मिट्टी कुएँ में लगना=(क) जहाँ की आमदनी वहीं खर्च होना। (ख) जहाँ की चीज हो वहीं के काम आना। कुएँ पर से प्यासे लौट आना=ऐसे स्थान पर से निराश लौटना जहाँ कोई काम बहुत सहज में हो सकता हो। कुएँ में बाँस डालना-किसी चीज की थाह लगाने या किसी को ढूँढ़ने के लिए अथक परिश्रम करना। कुएं में बोलना या कुएँ में से बोलना-इतने धीरे से बोलना कि सुनाई न पड़े। कूएँ में भाँग पड़ना=ऐसी स्थिति होना जिसमें सब लोग नशे की हालत में पागलों की तरह अनुचित आचरण या व्यवहार करने लगें। २. बहुत ही गहरी और अँधेरी जगह। ३. ऐसा स्थान या स्थिति जिसमें बहुत अधिक संकट की संभावना हो। मुहावरा—(किसी के लिए) कुआँ खोदना=किसी को फँसाने अथवा उसकी भारी हानि करने का प्रयत्न करना। कुएँ में गिरना=विपत्ति या संकट में पड़ना। कुएँ में गिराना या डालना=(क) नष्ट करना। (ख) विपत्ति या संकट में फँसाना। ४. रहस्य संप्रदाय में हृदय-रूपी कमल।
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कूईं  : स्त्री० [हिं० कुव+ईं प्रत्यय] १. जल में होनेवाला एक प्रसिद्ध पौधा जिसेक छोटे सुन्दर फल कमल की तरह के होते हैं। २. उक्त पौधे के फूल जो चाँदनी रात में खिलते हैं।
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कूक  : स्त्री० [हिं० कूकना (अ०)] १. कोयल या मोर की लंबी सुरीली ध्वनि। २. लंबी सुरीली ध्वनि। स्त्री० [हिं० कूकना (स)] घड़ी बाजे आदि को कूकने अर्थात् उनमें कुंजी देने की क्रिया या भाव।
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कूकड़  : पुं० =कुक्कुट (मुरगा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकना  : अ० [सं० कूजन] १. कोयल, मोर आदि का कू-कू शब्द करना। २. कोयल या मोर की सी बोली बोलना। ३. सुरीली ध्वनि निकालना। स० [अनु] घड़ी, कमानीदार बाजे आदि चलाने के लिए उनकी चाबी या कुंजी घुमाकर उनमें दम भरना। कुंजी या चाबी देना।
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कूकर  : पुं० [सं० कुक्कुर] [स्त्री० कूकरी] कुत्ता। श्वान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकर-निदिया  : स्त्री०=कूकरनींद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकरकौर  : पुं० [हिं० कूकर+कौर] १. कुत्ते के निमित्त छोड़ा हुआ उच्छिष्ट भोजन या ग्रास। २. तुच्छ या हीन वस्तु।
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कूकरचंदी  : स्त्री० [हिं० कूकर+सं० चंड] एक प्रकार की जंगली जड़ी जिसके व्यवहार से कुत्ते के काटने पर होनेवाला घाव ठीक हो जाता है।
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कूकरनींद  : स्त्री० [हिं० कूकर+नींद] ऐसी नीदं जो हलकी-सी आहट होने पर भी उचट जाय।
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कूकरभँगरा  : पुं० [हिं० कूकर+हिं० भंगरा] १. काला। भँगरा। २. कुकरौंधा।
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कूकरमुत्ता  : पुं० =कुकुरमुत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकरलेंड  : पुं० [हिं० कूकर+लेंड] कुत्तों और कुत्तियों का मैथुन।
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कूका  : पुं० [हिं० कूकना=जोर से चिल्लाना] १. सिक्खों का एक संप्रदाय जो सन् १८६७ में रामसिंह नाम के एक बढ़ई ने चलाया था, और जिसने आगे चलकर राजनीतिक रूप धारण किया था। नामधारी या निहंग संप्रदाय। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी व्यक्ति।
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कूकी  : स्त्री० [देश] फस को हानि पहुँचाने वाला एक प्रकार का कीड़ा।
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कूँख  : स्त्री०=कोख।
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कूख  : स्त्री०=कोख।
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कूँखना  : अ०=काँखना।
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कूँग  : पुं० [हिं० कुनना] कसेरों की एक प्रकार की खराद जिस पर वे बरतन खरादते और उन पर जिला अर्थात् पालिश करते हैं।
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कूँगा  : पुं० [देश] चमड़ा सिझाने के लिए बनाया हुआ बबूल की छाल का काढ़ा।
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कूँच  : स्त्री० [हिं० कूँचा] १. खस अथवा नारियल के रेसों का बना बुरूश जिससे जुलाहे ताने का सूत साफ करते हैं। २. लोहारों की बड़ी सँड़सी। स्त्री० [सं० कूचिका=नली] घोड़ानस (दे०) पुं०=कूच।
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कूँच  : स्त्री० [सं० क्रोच, पा० कौंच] १. जलशयों के किनारे रहनेवाला बगले के आकार का एक प्रसिद्ध पक्षी। कराँकुल।
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कूच  : पुं० [तु०] यात्रा आरंभ अथवा कहीं प्रस्थान करने की क्रिया या भाव। रवानगी। मुहावरा—(इस दुनिया से) कूच कर जाना=मर जाना। कूच का डंका या नक्कारा बजाना=राजा, सेना आदि का कहीं से प्रस्थान करना। कूच बोलना=अधीनस्थ सैनिकों आदि को कही से प्रस्थान करने का आदेश देना। पुं० [देश] पतझड़ के बाद महुए के पेड़ की टहनियों से निकलने वाला कलियों का गुच्छा। पुं० [सं० ] अविवाहित जवान स्त्री के स्तन। कुच। पुं० =कूँच (घोड़ा नस)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूँचना  : स० [हिं० कूँचा]=कुचलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूँचा  : पुं० [हिं० कुचलना] १. टूटे हुए जहाज के टुकड़े। २. भड़भूँजे का कलछा। पुं० =कूचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूचा  : पुं० [फा० कूचः] कम चौड़ा या छोटा रास्ता। सँकरा मार्ग। बड़ी गली। पुं० दे० ‘कूँचा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूचागर्दी  : स्त्री० [फा०] गलियों में इधर-उधर व्यर्थ घूमते-फिरते रहने की क्रिया या भाव।
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कूचिका  : स्त्री० [सं० कूच+कन्, टाप्, इत्व] १. कूँची। २. कुंजी। ताली।
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कूँची  : स्त्री०=कूची।
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कूची  : स्त्री० [सं० कूचिका] १. छोटा कूचा या झाड़। २. मूँज आदि का बनाया हुआ एक प्रकार का ब्रुश जिससे दीवारों पर सफेदी की जाती है। ३. चित्रकार की वह कलम जिससे वह चित्रों में रंग आदि भरता है। तूलिका। मुहावरा—कूची देना=चित्रों आदि में रंग भरना। स्त्री० [फा० कूचा] १. वह कुल्हिया जिसमें मिस्री जमाई जाती है। २. मिट्टी का वह बरतन जिसमें कोल्हू से निकला हुआ रस इकट्ठा होता है। स्त्री०=कुंजी (ताला खोलने की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूचुक  : पुं० [फा० काउचुक] कुछ विशिष्ट वृक्षों का वह दूधिया निर्यास जो सूखकर लचीला और रबर की तरह जल-कवच हो जाता है। (काउचुक)।
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कूज  : स्त्री० [हिं० कूजना] ध्वनि। शब्द।=कूजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूँजड़ा  : पुं० [स्त्री० कूँजड़ी]=कुँजड़ा।
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कूजन  : स्त्री० [सं०√कूज् (अव्यक्त शब्द)+ल्युट-अन] [वि० कूजित] पक्षियों का कोमल और मधुर स्वर में बोलने की क्रिया या भाव।
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कूँजना  : अ०=कूजना।
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कूजना  : अ० [सं० कूजन] पक्षियों का कोमल और मधुर स्वर में बोलना।
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कूँजरा  : पुं० [स्त्री० कूँजरी]=कूँजड़ा।
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कूजा  : पुं० [फा० कूजाः] १. मिट्टी का अर्धवतुलाकार छोटा बरतन। कुल्हड़। २. उक्त पात्र में जमाई हुई मिस्री। पुं० [सं० कुब्जक] १. गुलाब के पौधों की एक जाति। २. उक्त जाति के गुलाब का फूल जिसका रंग गहरा लाल होता है।
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कूँझ  : स्त्री०=कूज।
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कूँट  : पुं० [?] पैर का बंधन। उदाहरण—करह झेकि दोनू चढ़या कूँट न सँभालेह।—ढोला मारू।
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कूट  : पुं० [सं०√कूज् (आच्छादित करना, जलाना आदि)+अच्] १. पहाड़ की ऊँची चोटी। जैसे—चित्रकूट। २. आगे की ओर निकला हुआ नुकीला सिरा। नोक। ३. सींग। ४. ढेर। राशि। जैसे—अन्नकूट। ५. हल की वह लकड़ी जिसमें फाल लगा होता है। ६. लोहे का बड़ा हथौड़ा। ७. हिरन आदि फँसाने का जाल। ८. म्यान में रखा हुआ हथियार। ९. छल। धोखा। १॰. वैर। ११. झूठ। १२. अगस्त्य ऋषि। १३. घड़ा। १४. नगर का द्वार। १५. साहित्य में ऐसा पद या रचना, जिसमें श्लिष्ट अथवा संबंध-सूचक सांकेतिक शब्दों का प्राधान्य हो और इसी लिए जिसका ठीक अर्थ जल्दी सब लोगों की समझ में न आता हो। जैसे—सूर के कूट। १६. कोई ऐसी रहस्यमय बात जिसका आशय या मतलब जल्दी समझ में न आता हो। उदाहरण—प्रश्न चित्रों का फैला कूट। ‘निराला’। १७. वह हास्य या व्यंग्य जिसमें कोई गूढ़ अर्थ या आशय छिपा हो। १८. निहाई। १९. टूटे हुए सीगोंवाला बैल। वि० [सं० ] १. झूठा मिथ्यावादी। २. छली। धोखा देनेवाला। ३. कृत्रिम। जाली। बनावटी। जैसे—कूट मुद्रा। ४. प्रधान। मुख्य। स्त्री० [हिं० कूटना] १. कोई चीज कूटने की क्रिया या भाव। २. कूटने की मजदूरी। पुं० दे० ‘कुट’ (ओषधि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूट-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] ऐसा काम जो दूसरों को छलने या धोखा देने के लिए किया गया हो।
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कूट-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] कूट-कर्म करने अर्थात् दूसरों को छलने या धोखा देनेवाला व्यक्ति।
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कूट-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] सामरिक दृष्टि से विक्षेप महत्त्व का कोई क्षेत्र (स्ट्रैटेजिक एरिया)
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कूट-तर्क  : पुं० [कर्म० स०] १. सीधी बात घुमाकर कहने की क्रिया। २. इस प्रकार की कही हुई बात। वाग्जाल।
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कूट-तुला  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसा तराजू जिसमें जान-बूझकर पासँग रखा गया हो, और इसलिए जिसमें चीज उचित से कम तुलती हो।
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कूट-नीति  : स्त्री० [कर्म० स०] व्यक्तियों अथवा राष्ट्रों के पारस्परिक व्यवहार में दाँव-पेंच की ऐसी नीति या चाल जो सहज में प्रकट या स्पष्ट न हो सके। छिपी हुई चाल। (डिप्लोमेसी)।
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कूट-पण  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा लेख्य या सिक्का जो असली या वास्तविक न हो, बल्कि जाल रचकर बनाया गया हो।
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कूट-पाठ  : पुं० [ब० स०] मृदंग के चार वर्णों में से एक वर्ण।
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कूट-पालक  : पुं० [सं० कूट√पाल् (रक्षण)+णिच्०+ण्वुल्-अक] पित्तज्वर।
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कूट-पाश  : पुं० [कर्म० स०] पक्षियों को फँसाने का जाल।
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कूट-पूर्व  : पुं० [मध्य० स०] हाथियों का त्रिदोषज ज्वर।
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कूट-प्रश्न  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर सहज में न दिया जा सके। २. पहेली।
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कूट-बंध  : पुं० [कर्म० स०] पक्षी आदि फँसाने का जाल।
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कूट-मान  : पु० [कर्म० स०] १. ऐसी तौल या मान जो पूरा या मानक न हो। ठीक नाप से कुछ बड़ा या छोटा नाप। २. उचित से हलका या भारी बटखरा।
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कूट-मुद्र  : पुं० [ब० स०] वह जो जाली मुद्रायँ, लेख्य, सिक्के आदि बनाता हो।
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कूट-मुद्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] खोटा या जाली मुद्रा, लेख्य या सिक्का।
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कूट-मोहन  : पुं० [सं० कूट√मुह (मुग्ध होना)+णिच्+ल्यु-अन०] कार्तिकेय।
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कूट-युद्ध  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसा युद्ध या लड़ाई जिसमें धोखा देनेवाली चालें चली जाएँ। ‘धर्म-युद्ध’ का विपर्याय।
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कूट-योजना  : स्त्री० [कर्म० स०] षडंयंत्र।
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कूट-रूप  : पुं० [कर्म० स०] जाली सिक्का।
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कूट-लेख  : पुं० [कर्म० स०] जाली दस्तावेज या लेख्य।
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कूट-लेखक  : पुं० [कर्म० स०] जाली दस्तावेज बनानेवाला व्यक्ति।
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कूट-शाल्मलि  : पुं० [कर्म० स०] जंगली शाल्मलि (सेमर) का वृक्ष।
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कूट-शासन  : पुं० [कर्म० स०] जाली राजकीय आज्ञापत्र।
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कूट-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [कर्म० स०] झूठा गवाह।
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कूट-साक्ष्य  : पुं० [कर्म० स०] झूठी गवाही।
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कूट-स्थल  : पुं० [ष० त०] सामरिक दृष्टि से अधिक महत्त्व का कोई विशिष्ट केन्द्र या स्थान (स्ट्रैटेजिक प्वाइन्ट)
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कूट-स्वर्ण  : पुं० [कर्म० स०] १. खोटा या जाली सोना। २. ऐसे सोने का सिक्का।
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कूटक  : वि० [सं० कूट+कन्] किसी को छलने या धोखा देने के लिए कहा, किया या बनाया हुआ। जैसे—कूटक आख्यान।
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कूटता  : स्त्री० [सं० कूट+तल्-टाप्] १. कूट होने की अवस्था या भाव। २. कपट। छल। ३. झूठ ४. कठिनाई। दिक्कत।
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कूटत्व  : पुं० [सं० कूट+त्व]=कूटता।
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कूटन  : स्त्री० [हिं० कूटना] १. कूटने की क्रिया। २. कोई चीज कूटने पर बननेवाला उसका रूप।
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कूटना  : स० [सं० कुट्टन] १. किसी चीज पर इस प्रकार भारी चीज से बार-बार आघात करना कि उसके बहुत छोटे-छोटे टुकड़े हो जाय। जैसे—मसाला कूटना। २. धान को ऊखल में रखकर मूसल आदि से इस प्रकार बार-बार आघात करना कि उसकी भूसी अलग हो जाय। मुहावरा—(कोई चीज) कूट-कूट कर भरना=दबा-दबा कर किसी पात्र में कोई वस्तु अधिक-से-अधिक मात्रा में भरना। (किसी व्यक्ति में) कूट-कूटकर भरा होना=(किसी व्यक्ति में) कोई गुण या दोष बहुत अधिक मात्रा में होना। जैसे—चतुराई तो उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। ३. जोर-जोर से बराबर मारते रहना। खूब ठोंकना या पीटना। ४. टाँकी आदि से आघात करते हुए चक्की सिल आदि का तल इसलिए खुरदुरा करना कि उसमें चीजें अच्छी तरह पिस सकें। ५. बैल या भैसे का अंडकोश आघात से चूर-चूर करके उसे बधिया करना। ६. ऊँट का पैर मोड़कर उसे ऊपरी भाग में बाँधना।
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कूटस्थ  : वि० [सं० कूट√स्था (ठहरना)+क] १. जो कूट अर्थात् सबसे ऊँचे या श्रेष्ठ स्थान पर स्थित हो। २. अटल। अचल। ३. अविनाशी। ४. छिपा हुआ। ५. विकार रहित। निर्विकार। पुं० [सं० ] १. व्याघ्रनख नामक सुगंधित पदार्थ। २. जीव। ३. परमात्मा। ४. वेदान्त में चेतन का वह रूप जो अविद्या से आच्छन्न रहता है।
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कूटा  : पुं० [हिं० कूटना] १. वह व्यक्ति जो चीजें कूटने का काम करता हो। २. वह उपकरण जिससे चीजें कूटी जाती हों। कुटना।
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कूटाक्ष  : पुं० [सं० कूट-अक्ष, कर्म० स०] जूआ खेलने का ऐसा बनाया हुआ पासा जिससे अधिकतर कोई या कुछ विशिष्ट दाँव ही आते हों। (छलपूर्वक किसी को जीतने का साधन)
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कूटाख्यान  : पुं० [सं० कूट-आख्यान, कर्म० स०] १. कल्पित कथा। २. ऐसी कथा जिसमें कुछ ऐसे वाक्य हों जिनका कुछ अर्थ ही न लगता हो।
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कूटागार  : पुं० [सं० कूट-आगार, कर्म० स०] १. बौद्धों के अनुसार वह मंदिर जो मानुषी बुद्धों के लिए बना हो। २. छत के ऊपर की कोठरी। चौबारा। ३. तहखाना।
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कूटायुध  : पुं० [सं० कूट-आयुध, कर्म० स०] ऐसा आयुध या हथियार जो किसी दूसरी चीज के अन्दर छिपा हुआ हो। जैसे—गुप्ती जो ऊपर से देखने में छड़ी जान पड़ती है पर जिसके अन्दर बरछी रहती है।
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कूटार्थ  : वि० [सं० कूट-अर्थ, कर्म० स०] (लेख या वाक्य) जिसका अर्थ सहज में न जाना जा सके। पुं० लेख्य या वाक्य का उक्त प्रकार का अर्थ।
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कूटावपात  : पुं० [सं० कूट-अवपात० कर्म० स०] जंगली जानवरों को फँसाने के लिए बनाया हुआ गड्ढा जो ऊपर से घास-पात से ढका रहता है।
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कूटि  : स्त्री० [सं० कूट] कूट और व्यंग्यपूर्ण कथन या बात। उदाहरण—करहिं कूटि नारदहिं सुनाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटी  : स्त्री०=कुटी (पर्णशाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटी  : पुं० [सं० कूट+हिं० ई (प्रत्यय)] १. जाली या नकली वस्तुएँ बनानेवाला। जालिया। २. फरेबी। ३. कुटना। स्त्री०=कुटनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटू  : पुं० [देश०] एक पौधा, जिसके बीजों का आटा फलाहार के रूप में खाया जाता है। कोटू।
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कूँड़  : स्त्री० [सं० कुड़] १. युद्ध के समय सिर पर पहनी जानेवाली लोहे की टोपी। खोद। २. मि्टटी, लोहे आदि का वह बड़ा और गहरा बरतन जिसके द्वारा कूँए में से सिचांई के लिए पानी निकाला जाता है। ३. उक्त के आकार का वह पात्र जिसके ऊपर चमड़ा मढ़कर तबले के साथ का ‘बायाँ’ बनाया जाता है। ४. हल जोतने के खेत में बनी हुई गहरी लकीर।
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कूड  : वि० [सं० कूट] १. असत्य। मिथ्या। झूठ। २. छलयुक्त। उदाहरण—करहउ कूड़इ मनि थकइ पग राखीयउ जाँणा।—ढोला मारू।
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कूँड़ा  : पुं० [सं० कूँड़] [स्त्री० कूँड़ी] १. पानी रखने का काठ या मिट्टी का बड़ा और गहरा पात्र। २. कटोरे आदि के आकार का कोई पात्र। जैसे—कठौला। ३. गमला। ४. रोशनी करने की एक प्रकार की शीशे की बड़ी हाँड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूड़ा  : पुं० [सं० कूट, प्रा० कूड=ढेर] १. कोई चीज (जैसे—कमरा, घर, सड़क आदि) झाड़ने-पोंछने, बुहारने पर निकलने वाली गंदी और रद्दी चीजें। कतवार। बुहारन। २. निकम्मी व्यर्थ की या रद्दी चीजें। पद—कूड़ा-करकट=गली, सड़ी व्यर्थ की अथवा रद्दी चीजें।
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कूड़ा-कोठ  : पुं० [हिं० कूड़ा+कोठा] वह स्थान या पात्र जिसमें कूड़ा फेंका जाता है। (डस्ट-बिन)
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कूड़ाखाना  : पुं० [हिं० कूड़ा+फा० खाना] कूड़ा फेंकने का स्थान।
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कूँड़ी  : स्त्री० [हिं० कूँड़ा] १. पत्थर की बनी हुई कटोरी। पथरी। पत्थर की प्याली। २. छोटी नांद। ३. कोल्हू के बीच का वह गड्ढा जिसमें जाट रहती है। स्त्री० [सं० कुंडली] एँडुरी जिसे सिर पर रखकर स्त्रियाँ घड़ा उठाती हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूढ़  : वि० [सं० कु+ऊह,=कूह० पा० कूथ] जिसकी समझ में कोई बात जल्दी आती ही न हो। बहुत बड़ा ना-समझ या मूर्ख। पुं० [सं० कुष्टि, प्रा० कुड्ढि] १. हल का वह भाग जिसके एक सिरे पर मुठिया और दूसरे सिरे पर खोंपी लगी रहती है। जाँघा। नगरा। हलपत। २. नली के द्वारा खेत में बीज बोने का प्रकार।
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कूढ़मग्ज  : वि० [हिं० कूढ़+फा० मगज्] बहुत बड़ा ना समझ या मूर्ख।
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कूण  : सर्व०=कौन। (राज०)
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कूणिका  : स्त्री० [सं०√कूण् (बोलना)+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] वीणा, सितार सारंगी आदि वाद्यों की वह खूँटी जिसमें तार बँधे रहते हैं।
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कूणित  : भू० कृ० [सं०√कूण्+क्त] १. जो बंद हुआ हो। २. सुकचा या सिकुड़ा हुआ।
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कूणितेक्षण  : पुं० [सं० कूणित-ईक्षण, ब० स०] बाज नामक पक्षी।
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कूत  : पुं० [सं० आकूत=आशय] १. किसी वस्तु का मान, मूल्य महत्त्व आदि आँकने का काम। २. कुछ कल्पना करने के लिए मन-ही-मन कुछ सोचने की क्रिया या भाव।
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कूतना  : स० [हि० कूत] किसी वस्तु का मान, मूल्य या महत्त्व अटकल या अनुमान से आँकना। अन्दाज लगाना। जैसे—खेत की पैदावार कूतना।
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कूँथना  : स० [सं० कुंथन=दुःख उठाना] १. कराहना। २. कबूतरों का गुटरगूँ शब्द करना।
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कूथना  : अ० [सं० कुंथन] १. कराहना। २. काँखना। स०=कूटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूद  : स्त्री० [हिं० कूदना] कूदने की क्रिया या भाव। जैसे—उछल-कूद।
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कूँदना  : स० दे० ‘कुनना’।
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कूदना  : अ० [सं० स्कुदन, प्रा० कुंदन] १. किसी ऊँचे स्थान से नीचे स्थान की ओर एकबारगी तथा बिना किसी सहारे के उतरना। जैसे—चबूतरे या छत पर से कूदना। २. किसी वस्तु के एक छोर से छलाँग भरकर उसे लाँघते हुए दूसरे छोर पर पहुँचना। जैसे—कूदकर नाला पार करना। ३. किसी काम या बात के बीच में झट से आ पहुँचना या दखल देना। ४. लाक्षणिक अर्थ में,बिना अधिकार या अनुमति लिए दूसरे के कामों या बातों में दखल देना। ५. अचानक कहीं आ पहुँचना। ६. ठीक प्रकार से काम न करके बीच-बीच में बहुत सी बातें छोड़ते हुए आगे बढ़ना।
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कूदा  : पुं० [हिं० कूदना] खेत या जमीन नापने का एक परिमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कून  : स्त्री० [फा०] मलद्वार। गुदा। पुं० १. दे० ‘कुंद’। २. दे० ‘कूग’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूनना  : स० दे० ‘कुनना’।
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कूना  : पुं० [सं० कुपण] १. मृत शरीर। शव। लाश। २. देह। शरीर। ३. बरछा। भाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूनी  : स्त्री० [हिं० कूँड़ी] कोल्हू के बीच का गड्ढा जिसमें ऊख के टुकड़े डालकर पेरे जाते हैं। कूँड़ी।
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कूप  : पुं० [सं०√कू (श्बद)+पक्, दीर्घ] १. कूआँ। २. छेद। सूराख। जैसे—रोम —कूप। ३. गहरा गड्ढा। ४. रहस्य संप्रदाय में हृदय-रूपी कमल। पुं० =कुप्पा।
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कूप-कच्छप  : पुं० [पात्रे समितादिवत् समा० (स० त०)]=कूप-मंडूक।
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कूप-चक्र  : पुं० [ष० त०]=कूप-यंत्र।
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कूप-मंडूक  : पुं० [पात्रे समितादिवत्, समा] १. कुएँ में रहनेवाला मेढक। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान क्षेत्र बहुत ही परिमित हो, अथवा जिसने अपना क्षेत्र छोड़कर बाहर का संसार न देखा हो।
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कूप-यंत्र  : पुं० [ष० त०] चरखी अथवा ऐसा ही कोई यंत्र जिसकी सहायता से कुएँ से पानी निकालते हैं।
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कूपक  : पुं० [सं० कूप+कन्] १. छोटा कूआँ। २. आजकल कूएँ के आकार-प्रकार का वह गड्ढा जो खानों में आने-जाने और उसमें से खनिज पदार्थ निकालने के लिए बनाया जाता है। (शैफ्ट) ३. चमड़े की बनी हुई तेल वा घी रखने की कुप्पी। ४. नाव बाँधने का खूँटा। ५. जहाज व नाव का मस्तूल। ६. चिता।
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कूपकार  : पुं० [कूप√कृ (करना)+अण्] कुआँ खोदने या बनानेवाला।
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कूपन  : पुं० [अं०] १. बही आदि में टँका या लगा हुआ कागज का वह टुकड़ा जो काटकर या निकालकर इसलिए संकेत रूप में किसी को दिया जाता है कि उसके द्वारा वह किसी प्रकार का प्राप्य या सुभीता प्राप्त कर सके। जैसे—राशन पाने का कूपन। २. मनीआर्डर फार्म का वह निचला भाग, जिसमें पानेवाले के लिए कोई समाचार या सूचना लिखी जाती है।
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कूँपली  : स्त्री० [हिं० कुप्पा] कुप्पी के आकार का लकड़ी का वह पात्र जिसमें स्त्रियाँ काजल, टिकली आदि सुहाग के सामान रखती है। (राज०)
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कूपार  : पुं० [सं० कु√धृ (भरना)+अण्, पूर्वदीर्घ] समुद्र।
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कूपी  : स्त्री० [सं० कूप+ङीष्] १. छोटा कुआँ। २. नाभि का गढ़ा। ३. कुप्पी।
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कूफी  : स्त्री० [अ०-कूफः=एक प्राचीन नगर] प्राचीन अरबी लिपि का एक प्रकार का भेद।
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कूब  : पुं० =कूबड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूबड़  : पुं० [सं० कूवर] १. पीठ के टेढ़ेपन के कारण होनेवाला उस पर का उभार जो एक प्रकार का रोग है। २. किसी चीज का उभारदार टेढ़ापन या गोलाई। हम्प। जैसे—ऊँट का कूबड़।
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कूबड़ा  : पुं० =कुबड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूबर  : पुं० [सं०√कू (शब्द)+व (व) रच्] १. कूबड़। २. बाँस, जो रथ या गाड़ी में जुआ बाँधे जाने के लिए लगता है। युगंधर। ३. रथ या गाड़ी का वह भाग जिस पर रथी या गाड़ीवान बैठता है। वि०=कुबड़ा।
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कूबर  : (ा) पुं० =कुबड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूबरी  : पुं० =कूबड़।
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कूबा  : पुं० =कूबड़। वि०=कूबड़ा।
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कूम  : पुं० [देश] एक प्रकार का पेड़, जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है।
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कूमटा  : पुं० [देश] १. एक प्रकार की कपास। २. दे० ‘कूम’।
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कूर  : वि० [सं० कूर] [भाव० कूरता, कूरपन] १. जिसमें दया न हो। निर्दय। २. दुष्ट। ३. मूर्ख। ४. पापी। ५. डरावना। भयंकर। पुं० १. दे० ‘कूड़ा’। २. दे० ‘कूढ़’।
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कूरता  : स्त्री० [हिं० कूर+ता (प्रत्यय)] १. कूरता। २. कठोरता।
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कूरा  : पुं० [सं० कूट] [स्त्री०कूरी] १. ढेर। राशि। उदाहरण—जारि भए√भसम कौ कूरा।—कबीर। २. अंश। भाग। पुं० दे० ‘कूड़ा’।
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कूरी  : स्त्री० [हिं० कूरा का स्त्री अल्पा० रूप] १. छोटा ढेर। २. छोटा टीला।
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कूर्च  : पुं० [सं०√कुर (शब्द)+चट्, दीर्घ] १. कूँची। २. मोर का पंख। ३. नाक का ऊपरी भाग। ४. सिर।
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कूर्चक  : पुं० [सं० कूर्च+कन्] १. कूँची विशेषतः चित्रकार की। २. दाँत साफ करने की कूँची।
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कूर्चिका  : स्त्री० [सं० कूर्चक+टाप्, इत्व] १. कूँची। २. कुंजी। ३. कली। ४. सूई।
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कूर्दन  : पुं० [सं०√कूर्द (खेलना)+ल्युट-अन] खेलना कूदना।
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कूर्पर  : पुं० [सं०√कुर् +क्विप्, कुर्√पृ (पूर्ण करना)+अच्, दीर्घ] १. कोहनी। २. घुटना।
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कूर्म  : पुं० [सं० कु-ऊर्मि, ब० स० पृषो० सिद्धि] १. कच्छप। कछुआ। २. भगवान विष्णु का वह अवतार जिसमें उन्होंने कछुए का रूप धारण किया था। विष्णु का कूर्मावतार। ३. वह वायु जिसके बल से पलके खुलती और बन्द होती हैं।
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कूर्म-क्षेत्र  : पुं० [मध्य० स०] एक तीर्थ स्थान।
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कूर्म-पृष्ठ  : पुं० [ष० त०] कछुए की पीठ।
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कूर्मासन  : पुं० [सं० कूर्म-आसन, मध्य० स०] हठयोग में एक प्रकार का आसन, जिसमें शरीर की आकृति कछुए की-सी बना ली जाती है।
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कूर्मी  : स्त्री० [सं० कूर्म+ङीष्] कछुई।
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कूल  : पुं० [सं० √कूल्(आवृत्त करना)+अच्] १. तालाब, नदी, समुद्र आदि जलाशयों का किनारा। तट। २. नहर। ३. तालाब। ४. किसी वस्तु का सिरा। ५. किसी कार्य या बात की सीमा। यौ०-कूल-किनारा=किसी बात की ऐसी स्थिति जिसमें उसका निराकरण हो जाय। निबटारा। अव्य० निकट। समीप। पुं० [देश०] कपड़ा। वस्त्र।
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कूलंकषा  : स्त्री० [सं० कल√कष् (काटना)+खच्, मुम्, टाप्] नदी।
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कूलवती  : स्त्री० [सं० कूल+मतुप्, वत्व, ङीष्] नदी।
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कूला  : पुं० [देश] छोटी नहर। नाला।
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कूलिका  : स्त्री० [सं० कूल+कन्, टाप्, इत्व] वीणा सितार आदि का निचला भाग।
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कूलिनी  : स्त्री० [सं० कूल+इनि-ङीष्] नदी।
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कूल्टू  : पुं० दे० ‘कूटू’।
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कूल्हा  : पुं० [?] कमर या पेड़ू के दोनों ओर का कुछ उभरा हुआ भाग।
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कूल्ही  : स्त्री० [देश] पीतल।
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कूवटा  : पुं० [सं० कूप] १. कुआँ। २. दे० ‘कूप’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूवत  : स्त्री० [अं०] १. शारीरिक बल। शक्ति। २. किसी प्रकार की शक्ति। सामर्थ्य।
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कूवा  : पुं० =कुआँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूष्मांड  : पुं० [सं० कु-ऊष्मा-अण्ड, ब० स०] १. कुम्हड़ा। २. पेठा।
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कूह  : स्त्री० [अनु] १. हाथी के चिंघाड़ने से होनेवाला शब्द। २. चीख। चिल्लाहट। पुं० कोलाहल। शोर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूहना  : स० [सं० कु+हन] १. मारना-पीटना। २. बुरी तरह से हत्या करना। उदाहरण—कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है।—तुलसी।
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कूहा  : पुं० दे० ‘कोहरा’।
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