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शब्द का अर्थ

गीत  : वि० [सं०√गै (गाना)+क्त] गाने के रूप में आया या लाया हुआ। गाया हुआ। पुं० वह छोटी पद्यात्मक रचना जो केवल गाने के लिए बनी हो। विशेष–(क) इसमें प्रायः एक ही भाव की अभिव्यंजना होती है। (ख) इसमें लय तथा स्वर की प्रधानता अन्य पद्यात्मक रचनाओं से अधिक होती है। २. प्रशंसा। बढ़ाई। मुहावरा–(किसी के) गीत गाना=प्रशंसा या बढ़ाई करना। ३. कथन। चर्चा। मुहावरा–(अपना) गीत गाना= बराबर अपनी ही बात कहते जाना।
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गीत-क्रम  : पुं० [ष० त० ]१. किसी गीत के स्वरों के उतार-चढ़ाव अर्थात् गाने का क्रम। २. संगीत में एक प्रकार की तान।
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गीत-प्रिय  : पुं० [ब० स०] शिव।
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गीत-प्रिया  : स्त्री० [ब० स० टाप्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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गीत-भार  : पुं० [ष० त० ] १. गीत का पहला चरण या पद। टेक। २. उक्त (टेक) के विस्तृत अर्थ में की हुई ऐसी प्रतिज्ञा जिसका पूरा निर्वाह किया जाए। टेक।
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गीतक  : पुं० [सं० गीत+कन्] १. गीत। गाना। २. प्रशंसा। बढ़ाई। वि० १. गीत गानेवाला। २. गीत बनानेवाला।
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गीतकार  : पुं० [सं० गीत√कृ (करना)+अण्] [भाव० गीतकारिता] वह जो लोगों के लिए गीत बनाता या लिखता हो।
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गीता  : स्त्री० [सं० गीत+टाप्] १. ऐसी छंदोबद्ध कथा या वृत्तान्त जो लोगों के गाने के लिए प्रस्तुत किया गया हो। २. किसी का दिया हुआ छन्दोबद्ध और ज्ञानमय उपदेश। जैसे–रामगीता, शिवगीता आदि। ३. तारीफ। प्रशंसा। उदाहरण–एक रस रूप जाकी गीता सुनियत।–केशव। ४. भगवद्गीता। ५. संकीर्ण राग का एक भेद। ६. छब्बीस मात्राओं का एक छंद जिसमें १४ और १२ मात्राओं का विराम होता है।
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गीतातीत  : वि० [सं० गीत-अतीत, द्वि० त० ] १. जो गाया न जा सके। २. जिसका वर्णन न हो सके। अकथनीय। अनिवर्चनीय।
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गीतायन  : पुं० [सं० गीत-अयन, ष० त० ] गीत के साधन वीणा मृदंग आदि।
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गीति  : स्त्री० [सं०√गै+क्तिन्] १. गान। गीत। २. आर्या छन्द का एक भेद जिसके विषम चरणों में १२ और सम चरणों में १८ मात्राएँ होती हैं। उदगाथा। उदगाहा।
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गीति-काव्य  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा काव्य जो मुख्यतः गाये जाने के उद्देश्य से ही बना हो।
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गीति-नाट्य  : पुं० =गीति=रूपक।
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गीति-रूपक  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का रूपक जो पूरा या बहुत कुछ पद्य में लिखा होता है। (ऑपेरा)।
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गीतिका  : स्त्री० [सं० गीति+कन्-टाप्] १. छोटा गीत। २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ और १॰ के विराम से २६ मात्राएं होती हैं। इसकी तीसरी, १॰ वीं, १७ वीं और २४ वीं० मात्राएं सदा लघु होती हैं। ३. एक वर्णिक चंद जिसके प्रत्येक चरण में सगण, जगण, भगण रगण, सगण और लघु गुरु होते हैं।
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गीती (तिन्)  : वि० [सं० गीत+इनि] गाकर पढ़ने या पाठ करनेवाला।
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गीत्यार्या  : पुं० [सं० गीति-आर्या,कर्म० स०] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में ५ नगण और एक लघु होता है। अचल धृत्ति।
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