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नाथ  : पुं० [सं०√नाथ (ऐश्वर्य)+अच्] १. प्रभु। स्वामी। जैसे–दीनानाथ, विश्वनाथ। २. अधिपति। मालिक। ३. विवाहिता स्त्री का पति। ४. शिव। ५. आदिनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ के अनुयायियों या गोरखपंथियों का संप्रदाय। ६. उक्त संप्रदाय के अनुयायी साधुओं के नाम के अंत में लगनेवाली उपाधि। ७. उक्त संप्रदाय के अनुयायियों के अनुसार वह सबसे बड़ा योगीश्वर जो सब बातों से अलिप्त रहकर मोक्ष का अधिकारी हो चुका हो। ८. साँप पालनेवाले एक प्रकार के मदारी। स्त्री० [सं० नाथ या हिं० नाथना] १. नाथने की क्रिया या भाव। २. वह रस्सी जो ऊँटों, बैलों, आदि के नथनों में उन्हें वश में रखने के लिए डाली या बाँधी जाती है। स्त्री०=नथ (नाक में पहनने की)।
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नाथ-द्वारा  : पुं० [सं० नाथद्वार] उदयपुर के अंतर्गत वल्लभ-संप्रदाय के वैष्णवों का एक प्रसिद्ध तीर्थ, जहाँ श्रीनाथजी की मूर्ति स्थापित है।
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नाथ-पंथ  : पुं० [सं०] गुरु गोरखनाथ और उनके शिष्यों का चलाया हुआ एक संप्रदाय जिसकी ये बारह शाखाएँ हैं–सत्यनाथी, घर्मनाथी, रामपंथ, नटेश्वरी, कन्हण, कपिलानी, वैरागी, माननाथी, आईपंथ, पागलपंथ, धजपंथ और गंगानाथी। ये सभी शिव के भक्त हैं।
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नाथ-हरि  : पुं० [सं० नाथ√ह् (हरण)+इन] पशु।
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नाथता  : स्त्री० [सं० नाथ+त्व]=नाथता।
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नाथना  : स० [सं० नस्तन] १. कुछ विशिष्ट पशुओं के नथने में छेद करना। जैसे–ऊँट या बैल नाथना। २. इस प्रकार किए हुए छेद में लंबी रस्सी पहनाना जो लगाम का काम करती हो तथा जिससे पशु को वश में रखा जाता है। मुहा०–नाक पकड़कर नाथना=बलपूर्वक वश में करना ! ३. किसी चीज के सिरे में छेद करके उसे डोरे, रस्सी आदि से बाँधना। ४. कई चीजें एक साथ रखने की लिए उन में उक्त प्रकार की क्रिया करना। नत्थी करना। ५. लड़ी के रूप में गूँथना, जोड़ना या पिरोना। संयो० क्रि०–डालना।–देना।
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नाथपंथी  : पुं० [सं०] नाथ पंथ का अनुयायी।
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नाथवान् (वत्)  : वि० [सं० नाथ+मतुप्] पराधीन।
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