शब्द का अर्थ
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मंत्र :
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पुं० [सं०√मंत्र+घञ् वा अच्] १. भारतीय वैदिक साहित्य में देवता से की जानेवाली वह प्रार्थना जिसमें उसकी स्तुति भी हो। विशेष—वैदिक काल में तंत्र तीन प्रकार के होते थे। जो छंदोबद्ध या पद्य के रूप में होते थे और जिनका उच्चारण उच्च स्वर में किया जाता था, उन्हें ‘ऋचा’ कहते थे। गद्य रूप में होनेवाले और मंद स्वर में कहे जानेवाले मंत्रों को ‘यजु’ कहते थे, और पद्य रूप में गाये जानेवाले मंत्रों को ‘साम’ कहते थे। इसके सिवा निरुक्त में मंत्रों के तीन और भेद बतलाये गये हैं। जिन मंत्रों में देवता को परोक्ष में मान कर प्रथम पुरुष में उनकी स्तुति की जाती है, वे ‘परोक्ष-कृत’ कहलाते हैं। जिनमें देवताओं को प्रत्यक्ष मान कर मध्यम पुरुष में उनकी स्तुति की जाती है, उन्हें ‘प्रत्यक्षकृत’ कहते हैं। और जिन मंत्रों में स्वयं अपने आप में आरोप करके और उत्तम पुरुष में स्तुति की जाती है, वे ‘आध्यात्मिक’ कहलाते हैं। वैदिक मंत्रों में प्रायः प्रार्थना और स्तुति के सिवा अभिशाप, आशीर्वाद, निंदा, शपथ आदि की भी बहुत सी बातें पाई जाती हैं। वैदिक काल में इसी प्रकार के मंत्रों के द्वारा यज्ञ-संबंधी सब कृत्य किये जाते थे। २. वेदों का वह संहिता नामक भाग जिसमें उक्त प्रकार के मंत्र संगृहीत हैं और जो उनके ब्राह्मण नामक भाग से भिन्न हैं। ३. कोई ऐसा शब्द, पद या वाक्य जो दैवी शक्ति से युक्त माना जाता हो और जिसका उच्चारण किसी देवता को प्रसन्न करके उससे अपनी कामना पूरी कराने के लिए किया जाता हो। विशेष—उक्त प्रकार के मंत्रों में जो एकाक्षरी और बिना स्पष्ट अर्थवाले होते हैं। उन्हें तंत्र शास्त्र में बीज-मंत्र कहते हैं। पद—मंत्र-तंत्र, यंत्र-मंत्र। ४. राय या सलाह। मंत्रणा। ५. कोई ऐसी बात जो किसी प्रकार का उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी को गुप्त रूप से बतलाई, समझाई या सिखाई जाय। कार्य-सिद्धि का गुर, ढंग या नीति। जैसे—न जाने तुमने उसे कौन सा मंत्र बता (या सिखा) दिया है कि वह लोगों से अपना काम तुरंत करा लेता है। |
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मंत्र-गूढ़ :
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पुं० [सं० स० त०] गुप्तचर। जासूस। भेदिया। |
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मंत्र-गृह :
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पुं० [सं० ष० त०] वहा स्थान जहाँ बैठकर मंत्रणा या सलाह करते हैं। |
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मंत्र-जल :
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पुं० [सं० मध्य० स०] मंत्र से प्रभावित किया हुआ जल। |
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मंत्र-जिह्व :
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पुं० [सं० ब० स०] अग्नि। |
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मंत्र-तंत्र :
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पुं० [सं० द्व० स०] वे मंत्र जो कुछ विशिष्ट प्रकार की क्रियाओं के साथ जादू-टोने के रूप में किसी अभीष्ट सिद्धि के लिए पढ़े जाते हैं। विशेष—ऐसे मंत्र या तो तंत्रशास्त्र के क्षेत्र के होते हैं; या उनके अनुकरण पर मन-माने ढंग से बनाये हुए होते हैं। |
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मंत्र-दीधिति :
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पुं० [ब० स०] अग्नि। आग। |
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मंत्र-द्रष्टा :
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वि० [ष० त०] जो मंत्रों का अर्थ जानता हो। पुं० मंत्रों के अर्थ जानने और बतानेवाला ऋषि। |
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मंत्र-धर :
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पुं० [ष० त०] मंत्र का अधिष्ठाता ऋषि। |
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मंत्र-धर :
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पुं० [ष० त०] मंत्री। |
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मंत्र-पति :
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पुं० [ष० त०] मंत्र का अधिष्ठाता देवता। |
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मंत्र-पूत :
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भू० कृ० [तृ० त०] १. मंत्र द्वारा पवित्र किया हुआ। २. मंत्र पढ़कर फूँका हुआ। |
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मंत्र-बीज :
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पुं० [ष० त०] मूल मंत्र। |
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मंत्र-भेदक :
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पुं० [ष० त०] वह जो शासन के निश्चय, भेद या रहस्य दूसरों पर प्रकट कर देता हो। (ऐसा व्यक्ति, राज्य या राष्ट्र या शत्रु माना जाता है।) |
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मंत्र-मूल :
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पुं० [ब० स०] राज्य। |
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मंत्र-यान :
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पुं० [ब० स० या सुप्सुपा स० ?] बौद्धों की एक शाखा जिसके प्रवर्त्तक सिद्ध नागार्जुन माने जाते हैं। इसे वज्रज्यान (देखें) भी कहते हैं। इस शाखा में बुद्ध के उपदेशों का सारांश मंत्रों के रूप में जपा जाता है। विशेष—बौद्ध धर्म का तीसरा यान या मार्ग जो महायान के बाद चला था; और जिसमें कुछ मंत्रों के उच्चारण से ही निर्वाण प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता था। |
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मंत्र-युद्ध :
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पुं० [सुप्सुपा स०] केवल बातचीत या बहस के द्वारा शत्रु को वश में करने की क्रिया या प्रयत्न। |
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मंत्र-योग :
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पुं० [ष० त०] १. मंत्रों का प्रयोग। मंत्र पढ़ना। २. हठयोग में प्राणायाम करते हुए मंत्र या नाम जपना। शब्द योग। ३. इन्द्रजाल। जादू। |
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मंत्र-विद् :
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वि० [सं० मंत्र√विद् (जानना)+क्विप्] १. मंत्र जाननेवाला। मंत्रज्ञ। २. वेदज्ञ। ३. राज्य या शासन के रहस्य और सिद्धांत जाननेवाला। |
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मंत्र-विद्या :
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स्त्री० [ष० त०]=मंत्र-शास्त्र। |
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मंत्र-शास्त्र :
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पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें भिन्न प्रकार के मंत्रों के द्वारा उसके कार्य सिद्ध करने की क्रियाएँ और विवेचन हो। तंत्र-शास्त्र। |
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मंत्र-संस्कार :
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पुं० [सं० ष० त०] १. मंत्रों की विधि से किया जानेवाला संस्कार। २. मंत्र-ग्रहण करने से पूर्व उसका किया जानेवाला संस्कार। (तंत्र) ३. विवाह। |
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मंत्र-संहिता :
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स्त्री० [ष० त०] वेदों का वह अंश जिसमें मंत्रों का संग्रह है। |
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मंत्र-सिद्ध :
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वि० [तृ० त०] १. जो मंत्रों के द्वारा सिद्ध किया गया हो। २. [ब० स०] जिसे मंत्र सिद्ध हो। |
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मंत्र-सिद्धि :
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स्त्री० [ष० त०] मंत्र-तंत्र का इस प्रकार सिद्ध होना कि उनसे उपयुक्त काम लिया जा सके। |
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मंत्र-सूत्र :
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पुं० [मध्य० स०] रेशम या सूत का वह तागा जो शरीर के किसी अंग में बाँधने के लिए मंत्र पढ़कर तैयार किया गया हो। गंडा। |
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मंत्रकार :
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पुं० [सं० मंत्र√कृ+अण्, उप० स०] मंत्र रचनेवाला। जैसे—मंत्रकार ऋषि। |
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मंत्रज्ञ :
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वि० [सं० मंत्र√ज्ञा (जानना)+क] १. मंत्र जाननेवाला। २. परामर्श या सलाह देने की योग्यता रखनेवाला। ३. भेद या रहस्य जाननेवाला। |
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मंत्रण :
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पुं० [सं०√मंत्र (गुप्त भाषण)+ल्युट्—अन] १. मंत्रणा या सलाह करना। २. परामर्श। |
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मंत्रणा :
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स्त्री० [√मंत्र् +णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. किसी महत्त्वपूर्ण विषय के संबंध में आपस में होनेवाली बात-चीत या विचार-विमर्श। सलाह। २. उक्त बात-चीत या विचार-विमर्श के द्वारा स्थिर किया हुआ मत। मंतव्य। ३. किसी काम के संबंध में किसी को दिया जानेवाला परामर्श या सलाह। (एडवाईज़) |
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मंत्रणा-परिषद् :
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स्त्री० [सं० ष० त०] मंत्रणाकारों की ऐसी परिषद् जो किसी बड़े अधिकारी या शासन को मंत्रणा देती रहती हो। (ऐडवाइज़री कौंसिल) |
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मंत्रणाकार :
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पुं० [सं० मंत्रणा√कृ (करना)+अण्] वह जो किसी को उसके कार्यों के संबंध में मंत्रणा देता रहता हो। (एडवाईजर) |
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मंत्रद :
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वि० [सं० मंत्र√दा (देना)+क, उप० स०] परामर्श देनेवाला। पुं० वह गुरु जिसने गुरु-मंत्र दिया हो। |
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मंत्रदर्शी (दर्शिन्) :
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वि० [सं० मंत्र√दृश् (देखना)+णिनि, उप० स०] वेदवित्। वेदज्ञ। |
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मंत्रवादी (दिन्) :
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वि० [सं० मंत्र√वद् (कहना)+णिनिन लोप] १. मंत्रज्ञ। २. मंत्र उच्चारण करनेवाला। |
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मंत्रालय :
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पुं० [मंत्र-आलय, ष० त०] १. मंत्री का कार्यालय। २. आजकल शासन में, कर्मचारियों का वह विभाग जो किसी मंत्री के निर्देशन में काम करता हो। (मिनिस्टरी) जैसे—शिक्षा मंत्रालय। |
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मंत्रि-पति :
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पुं० [सं० ष० त०] प्रधान मंत्री। |
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मंत्रि-परिषद् :
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स्त्री० [ष० त०] किसी राज्य, संस्था आदि के मंत्रियों का समूह या समाहार। (कैबिनेट, काउन्सिल) |
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मंत्रि-मंडल :
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पुं० [ष० त०] किसी राज्य के मंत्रियों का मंडल, वर्ग या समूह (मिनिस्टरी) |
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मंत्रित :
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भू० कृ० [सं०√मंत्र्+क्त या मंत्र+इतच्] १. मंत्र द्वारा संस्कृत। अभिमंत्रित। २. जिसे मंत्र दिया गया हो। |
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मंत्रिता :
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स्त्री० [सं० मंत्रिन्+तल्+टाप्] १. मंत्री होने की अवस्था, पद या भाव। मंत्रित्व। २. मंत्री का कार्य। |
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मंत्रित्व :
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पुं० [सं० मंत्रिन्+त्व] मंत्री का कार्य या पद। मंत्री-पद। |
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मंत्री (त्रिन्) :
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पुं० [सं० मंत्र+इनि,] १. वह जो मंत्रणा अर्थात् परामर्श या सलाह देता हो। २. राजा का वह प्रधान अधिकारी जो उसे राजकार्यों के संबंध में परामर्श देता और राज-कार्यों का संचालन करता हो। अमात्य। ३. वह व्यक्ति जिसके आदेश और परामर्श से राज्य के किसी विभाग के सब काम-काज होते हों। (मिनिस्टर) जैसे—अर्थ-मंत्री, शिक्षा-मंत्री। विशेष—मंत्री और सचिव के अन्तर के लिए दे० ‘सचिव’ का विशेष। ४. किसी संस्था का वह प्रधान अधिकारी जिसके आदेश तथा परामर्श से उसके सब काम होते हों। (सेक्रेटरी) जैसे—सभा का मंत्री। ५. वह जो किसी उच्च अधिकारी के साथ रहकर उसके पत्र-व्यवहार तथा महत्त्व के कार्यों की व्यवस्था करता हो। सचिव। (सेक्रेटरी) ६. शतरंज में वजीर नाम की गोटी या मोहरा। |
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