शब्द का अर्थ
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					राह					 :
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					स्त्री० [फा०] १. मार्ग। पथ। रास्ता। मुहावरा—राह पड़ना= (क) रास्ते पर चलना या जाना। (ख) रास्ते में चलनेवाले पर छापा डालना। लूटना। राह मारना= (क) रास्ते में चलनेवाले को लूटना। (ख) दे० ‘रास्ता’ के अंतर्गत (किसी का) रास्ता काटना। विशेष—राह के सब मुहावरा के लिए दे० ‘रास्ता’ के मुहावरा। २. कोई काम या बात करने का उचित और ठीक ढंग। पद—राह राह का=ठीक ढंग या तरह का। उदाहरण—नखरो राह राह को नीको।—भारतेन्दु। राह राह से=सीधी या ठीक तरह से। ३. प्रथा। रीति। ४. कायदा। नियम। ५. तरकीब। युक्ति। पुं० =राहु (ग्रह) स्त्री०=रोहू (मछली)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					राह-खरच					 :
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					पुं० [फा० राह+खर्च] यात्रा करते समय होनेवाला व्यय। मार्ग-व्यय।				 | 
			
			
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					राह-खरची					 :
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					स्त्री०राह-खरच (मार्ग-व्यय)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					राह-चलता					 :
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					पुं० [फा० राह+हिं० चलता] [स्त्री० राह-चलती] १. रास्ता चलनेवाला। पथिक। राहगीर। बटोही। २. व्यक्ति जिससे विशेष परिचय न हो। जैसे—यों ही राह-चलतों से मजाक नहीं करना चाहिए।				 | 
			
			
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					राह-रस्म					 :
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					स्त्री० [फा०] १. मेल-जोल। व्यवहार घनिष्ठता। २. चाल। परिपाटी। प्रथा।				 | 
			
			
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					राह-रीति					 :
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					स्त्री० [हिं० राह+सं० रीति] १. पारस्परिक राह-रस्म। व्यवहार।। २. जान-पहचान। परिचय। ३. आचरण, व्यवहार आदि का उचित या ठीक तरह से किया जानेवाला पालन।				 | 
			
			
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					राहगीर					 :
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					पु० [फा०] वह जो रास्ता पकड़े हुए हो। बटोही।				 | 
			
			
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					राहजन					 :
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					पुं० [फा० राहज़न] [भाव० राहजनी] रास्ते में चलनेवालों को लूटनेवाला। बटमार।				 | 
			
			
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					राहजनी					 :
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					स्त्री० [फा० राहज़नी] रास्ते में चलनेवाले लोगों को लूटना। बटमारी।				 | 
			
			
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					राहड़ी					 :
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					पुं० [देश] एक प्रकार का घटिया कंबल।				 | 
			
			
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					राहत					 :
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					स्त्री० [अ०] १. आराम। सुख। चैन। २. वह आराम जो कष्ट, रोग आदि में कमी होने पर मिलता है। ३. बोझ, भार, उत्तरदायित्व से छुट्टी मिलने पर होनेवाली आसानी या सुगमता।				 | 
			
			
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					राहत-तलब					 :
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					वि० [अ०] [भाव० राहत-तलवी] १. आराम तलब। २. कामचोर।				 | 
			
			
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					राहदार					 :
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					पुं० [फा०] वह जो किसी रास्ते की रक्षा करता या उस पर आने-जानेवालों से कर वसूल करता हो।				 | 
			
			
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					राहदारी					 :
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					स्त्री० [फा०] १. किसी दूर देश में जाने के लिए रास्ते पर चलना। २. वह कर जो प्राचीन काल में यात्रियों को कुछ विशिष्ट स्थानों पर चुकाना पड़ता था। दे० ‘राहदारी का परवाना’।				 | 
			
			
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					राहदारी का परवाना					 :
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					पुं० [हिं०] प्राचीन काल में वह परवाना या अधिकार-पत्र जो दूर देश के यात्रियों को कुछ विशिष्ट मार्गों से आने-जाने के लिए राज्य की ओर से मिलता था। २. दे० ‘पारपत्र’।				 | 
			
			
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					राहना					 :
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					स० [हिं० राह (राह बनाना)] १. चक्की के पाटों को खुरदुरा करके पीसने योग्य बनाना। जाँता कूटना। २. रेती आदि को खुरदुरा करके ऐसा रूप देना कि वह ठीक तरह से चीजें रेत सके। पुं० =रहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					राहनुमा					 :
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					वि० [फा०] [भाव० राहनुमाई] पथ-प्रदर्शक।				 | 
			
			
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					राहनुमाई					 :
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					स्त्री० [फा०] पथ-प्रदर्शन।				 | 
			
			
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					राहबर					 :
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					वि० [फा०]=रहबर (मार्ग-प्रदर्शक)।				 | 
			
			
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					राहर					 :
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					पुं० =अरहर (अन्न)।				 | 
			
			
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					राहा					 :
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					पुं० [हिं० रहना] मिट्टी का वह चबूतरा जिस पर चक्की के नीचे का पाट जमाया रहता है।				 | 
			
			
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					राहिन					 :
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					वि० [अ] रेहन अर्थात् गिरों या बंधक रखनेवाला।				 | 
			
			
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					राही					 :
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					पुं० [फा०] राहगीर। मुसाफिर। रास्ता चलनेवाला व्यक्ति। पथिक। मुहावरा—राही करना=धता बताना (बाजारू) राही होना=चलता बनना। रास्ता पकड़ना (बाजारू)। स्त्री० [सं० राधिका, प्रा० रहिया] राधा या राधिका। उदाहरण—राजमती राही जी सी।—नरपति नाल्ह।				 | 
			
			
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					राहु					 :
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					पुं० [सं०√रह् (त्याग)+उण्] १. पुराणानुसार नौ ग्रहों में से एक जो विप्रचिति के वीर्य से सिहिंका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। विशेष—प्राचीन काल में चंद्रमा के आरोह-पात और अवरोह-पात वाले बिंदुओं को क्रमात् राहु और केतु कहते थे (दे० ‘पात’) पर आगे चलकर पौराणिक काल में राहु की राक्षस रूप में कल्पना होने लगी और समुद्र-मंथन वाली कथा के प्रसंग में उसका सिर काटने की बात भी सम्मिलित हुई, तब केतु उस राक्षस का कबंध तथा राहु उसका सिर माना जाने लगा। लोक में ऐसा माना जाता है कि उसी के ग्रसने से चन्द्रमा और सूर्य को ग्रहण लगता है। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसा व्यक्ति या पदार्थ जो किसी की सत्ता के लिए विशेष रूप से कष्टदायक या घातक हो। पुं० [सं० राघव] रोहू मछली।				 | 
			
			
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					राहु-ग्रसन					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-ग्रास					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-दर्शन					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-भेदी (दिन्)					 :
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					पुं० [सं० राहु√भिद् (विदारण)+णिनि] विष्णु।				 | 
			
			
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					राहु-माता (तृ)					 :
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					स्त्री० [सं० ष० त०] राहु की माता सिहिंका।				 | 
			
			
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					राहु-रत्न					 :
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					पुं० [सं० मध्य० स०] गोमेद मणि जो राहु के दोषों का शमन करनेवाली मानी जाती है।				 | 
			
			
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					राहु-सूतक					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-स्पर्श					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहुल					 :
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					पुं० [सं०] यशोधरा के गर्भ से उत्पन्न गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम।				 | 
			
			
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					राहूत					 :
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					पुं० [?] सूफी मत के अनुसार ऊपर के नौ लोकों में से आठवाँ लोक।				 | 
			
			
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