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विरुद्ध  : वि० [सं०] १. सामने आकर विरोधी होनेवाला। २. कार्य, प्रयत्न आदि का विरोध करने या उसकी विफलता चाहनेवाला। ३. जो अनुकूल नहीं, बल्कि प्रतिकूल हो। मेल या संगति में न बैठनेवाला। विपरीत। ४. साधारण नियमों आदि से विभिन्न और उलटा। जैसे— विरुद्ध आचरण। अव्य० १. प्रतिकूल स्थिति में। खिलाफ। जैसे—किसी के विरुद्ध चलना या बोलना। २. किसी के मुकाबले या विरोध में। ३. सामने। पुं० [सं०] भारतीय नैयायिकों के अनुसार ५ प्रकार के हेत्वाभावों में से एक जो वहाँ माना जाता है जहाँ दिया हुआ हेतु स्वयं अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत हो।
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विरुद्ध-मति-कारिता  : स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का काव्य दोष जो ऐसे पद या वाक्य के प्रयोग में होता है जिससे वाच्य के संबंध में विरुद्ध या अनुचित भाव उत्पन्न हो सकता हो। जैसे—‘‘भवानीश’’ में यह दोष इसलिए है कि भव से उनकी पत्नी का नाम भवानी हुआ है। अब उसमें ईश शब्द जोड़ना इसलिए ठीक नहीं है कि इससे अर्थ हो जायगा—भव की स्त्री के स्वामी।
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विरुद्धकर्मी (कर्मन)  : वि० [सं० ब० स०] १. विरुद्ध कर्म करनेवाला। २. विपरीत या निन्दनीय आचरण वाला। पुं० श्लेष अलंकार का एक भेद जिसमें किसी क्रिया के फलस्वरूप होने वाली परस्पर विरुद्ध प्रतिक्रियाओं का उल्लेख होता है। (केशव)।
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विरुद्धता  : स्त्री० [सं० विरुद्ध+तल्+टाप्] १. विरुद्ध होने की अवस्था या भाव। विरोध। २. प्रतिकूलता।
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विरुद्धार्थ  : वि० [सं०] विरोधी अर्थवाला। पुं० विरुद्ध या विपरीत अर्थ।
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विरुद्धार्थ दीपक  : पुं० [सं०] साहित्य में दीपक अलंकार का एक भेद जिसमें एक ही बात से दो परस्पर विरुद्ध क्रियाओं का एक साथ होना दिखाया जाता है।
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