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शब्द का अर्थ

श्लेष  : पुं० [सं०√श्लिष्+घञ्] [वि० श्लेषक, श्लेषी, भू० कृ० श्लिष्ट] १. संयोग होना। जुड़ना। मिलना। २. आलिंगन। परिरंभण। ३. बोल-चाल लेख आदि में वह स्थिति जिसमें कोई शब्द इस प्रकार प्रयुक्त होता है कि उसके दो या अधिक अर्थ निकलें और फलतः वह लोगों के परिहास का विषय बनें। ४. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जो कुछ अवस्थाओं में अर्थालंकार और कुछ अवस्थाओं में शब्दालंकार होता है। इसमें किसी या कुछ शब्दों के दो या अधिक अर्थ निकलते हैं (पैरोनोमिशिया)। विशेष—इसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जिनके कई कई अर्थ होते हैं और प्रसंगों के अनुसार उनके अलग अलग अर्थ होते हैं। यथा—नाहीं नाहीं करैं थोरे माँगें बहु देन कहैं, मंगन को देखि पट तेत बार बार हैं। इसमें कही हुई बातें अलग अलग प्रकार के कृपण पर भी घटती हैं और दाता पर भी। इसके दो भेद होते हैं—अभंग पद और भंग-पद।
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श्लेष-चित्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. साहित्य में ऐसा चित्र जिसमें स्पष्ट रूप से व्यक्त होनवाले भाव के सिवा कोई और भाव भी छिपा हो। जैसे—यदि कोई नायक कई नायिकाओं में से किसी एक नायिका पर रीझ कर अन्य नायिकाओं को भूल जाय और उससे चिढ़कर कोई मानिनी नायिका ऐसा चित्र अंकित कर जिसमें वह नायक कई कुमुदिनियों के बीच में से किसी एक कुमुदिनी का रस लेता हुआ दिखाई दे तो ऐसा चित्र श्लेष-चित्र कहा जायगा। २. दे० ‘कूट चित्र’।
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श्लेषक  : वि० [सं०√श्लिष+ण्वुल-अक] श्लेषण करने या मिलानेवाला।
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श्लेषण  : पुं० [सं०√श्लिष्+ल्युष-अन] [वि० श्लेषणी, श्लेषी, भू० कृ० श्लेषित, श्लिष्ट] १. सयोग करना। मिलाना। २. किसी के साथ जोड़ना या लगाना। ३. गले लगाना। आलिंगन।
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श्लेष्म  : पुं० [सं०] श्लेष्मा।
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श्लेष्मा  : पुं० [सं० श्लिष्+मनिन्,श्लेस्मन्] १. शरीर में का कफ नामक विकार जो शरीर की तीन धातुओं में से एक माना गया है। बलगम। २. बाँधने की डोरी या रस्सी। ३. लिसोड़ा।
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