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सब्र  : पुं० [अ०] १. वह मानसिक स्थिति जिसमें मनुष्य उत्तेजित, उत्पीड़ित, दुखी या संतप्त किये जाना अथवा किसी प्रकार की विपत्ति या विलंब का सामना होने पर भी धीरे या शांति भाव से चुप रहता या सहन करता। जैसे—(क) थोड़ा सब्र करो, समय आने पर उससे समझ लिया जायगा। (ख) अपमानित होने (या मार खाने) पर भी वह सब्र करके बैठ गया। मुहा—सब्र आना=किसी का कुछ अनिष्ठ करके अथवा बदला चुकाकर ही चुप या शांत होना। उदा०—मारा जमीं में गाड़ा, तब उसको सब्र आया। कोई शायर। सब्र कर बैठना या कर लेना=चुपचाप और शांत भाव से सहन करते हुए भी कष्ट हानि आदि का प्रतिकार न करना। (किसी पर किसी का) सब्र पड़ना=उत्पीड़क को उत्पीड़ित के सब्र के फलस्वरूप किसी प्रकार का दुष्परिणाम भोगना पड़ेगा। (किसी का) सब्र समेटना=किसी को पीड़ित करने पर उसके सब्र के भल भोग का भागी बनना। २. जल्दी, हड़बड़ी आदि छोड़कर धैर्य घारण करने वाला। जैसे—सब्र करो गाड़ी छूटी नही जाती।
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सब्रह्माचारी  : पुं० [सं० अव्य० स०] वे ब्रह्मचारी जिन्होने एक साथ एक ही गुरु के यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त की हो।
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