शब्द का अर्थ
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					सर्वतो					 :
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					अव्य० [सं०] संस्कृत सर्वतः का वह रूप जो उसे समस्त पदों के आरम्भ में लगाने पर प्राप्त होता है। जैसा—सर्वतोचक्र सर्वतोभद्र आदि।				 | 
			
			
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					सर्वतोचक					 :
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					पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का वर्गाकार चक्र जो कुछ विशिष्ट प्रकार के शुभाशुभ फल जानने के लिए बनाया जाता है।				 | 
			
			
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					सर्वतोभद्र					 :
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					वि० [सं०] १. सब ओर से मंगल कारक। सर्वांश में शुभ या उत्तम। २. जिसकी दाढ़ी, मूँछें और सिर के बाल मुंडे हुए हों। पुं० १. विष्णु के रथ का नाम। २. ऐसा चौकोर प्रासाद या भवन जो चारों ओर से खुला हो और जिसकी परिक्रमा की जा सकती हो। ३. कर्मकांड में एक प्रकार का चौकोर चक्र जो पूजन के समय भूमि, वस्त्रों आदि पर बनाया जाता है। ४. प्राचीन भारत में एक प्रकार की चौकोर सैनिक व्यूह रचना। ५.साहित्य में एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें चौकोर स्थापित किए हुए बहुत से खानों में कविता के चरणों के अक्षर लिखे जाते हैं। ६. योग साधन का एक प्रकार का आसन या मुद्रा। ७. एक प्रकार की पहेली जिसमें शब्द के खंडाक्षरों के भी अलग-अलग अर्थ लिखे जाते है। ७. एक प्रकार का गंध-द्रव्य। ८. नीम का पेड़। ९. बाँस।				 | 
			
			
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					सर्वतोभद्रा					 :
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					स्त्री० [सं० सर्वतोभद्र-टाप्] १. काश्मीरी। गंभारी। २. अभिनेत्री। नटी।				 | 
			
			
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					सर्वतोभाव					 :
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					अव्य० [सं०] १. सब प्रकार से। पूर्ण रूप से। अच्छी तरह। भली-भाँति।				 | 
			
			
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					सर्वतोमुख					 :
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					वि० [सं०] सर्वतोमुखी। पुं० १. ब्रह्मा। २. जीव। ३. शिव। ४. अग्नि। ५. जल। ६. स्वर्ग। ७. आकाश। ८. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना।				 | 
			
			
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					सर्वतोमुखी (खिन्)					 :
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					वि० [सं०] १. जिसका मुँह चारो ओर हो। २. जो सभी ओर प्रवृत्त रहता हो। ३. जो सभी तरह के कार्यो या क्षेत्रों के हर विभाग में दक्ष हो। (आल रारउन्डर)। पुं०=सर्वतोमुख।				 | 
			
			
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					सर्वतोवृत्त					 :
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					वि० [सं० ब० स०] सर्व-व्यापक।				 | 
			
			
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