शब्द का अर्थ
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					साध्य					 :
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					वि० [सं०] १. (कार्य) जिसका साधन हो सके। जो सिद्ध या पूरा किया जा सके। जैसे—यह कार्य सबके लिए साध्य नहीं है। २. आसान। सहज। सुगम। ३. तर्क या न्याय में, (पक्ष या विषय) जो प्रमाणित किया जाने को हो। ४. वैद्यक में, (रोग) जो चिकित्सा के द्वारा दूर किया जा सकता हो। ५. (काम या बात) जिसका प्रतिकार हो सकता हो अथवा किया जा सकता हो। ६. (विषय) जो प्रयत्न करने पर जाना जा सकता हो। पुं० १. कोई काम पूरा कर सकने की योग्यता या शक्ति। सामर्थ्य। जैसे—यह काम हमारे साध्य के बाहर है। २. न्याय में, वह पदार्थ जिसका अनुमान किया जाय। जैसे—पर्वत से धुँआ निकलकता है अतः वहाँ अग्नि है। यहाँ अग्नि साध्य है, जिसका अनुमान किया गया है। ३. इक्कीसवाँ योग। (ज्यो०) ४. गुरु से लिये जानेवाले चार प्रकार के मंत्रों में से एक प्रकार का मंत्र। (तंत्र) ५. एक प्रकार के गण देवता जिनकी संख्या १२ है। ६. देवता।				 | 
			
			
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					साध्य प्रकाश					 :
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					पुं० [सं०] सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय दिखलाई पड़नेवाला धुँधला प्रकाश।				 | 
			
			
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					साध्यता					 :
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					स्त्री० [सं० साध्य+तल्—टाप्] साध्य होने की अवस्था, गुण या भाव।				 | 
			
			
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					साध्यवसान रूपक					 :
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					पुं० [सं०] साहित्य में, रूपक अलंकार का वह प्रकार या भेद जो साध्यवासना लक्षणा से युक्त होता है। (एलिगोरी)				 | 
			
			
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					साध्यवसानिका					 :
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					स्त्री०=साध्यवसाना (लक्षणा)।				 | 
			
			
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					साध्यवसाय					 :
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					वि० [सं० स० ब०] (उक्ति या कथन) जो साध्यवसाना लक्षणा से युक्त हो।				 | 
			
			
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					साध्यवान् (वत्)					 :
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					वि० [सं० साध्य+मतुप् म=व] (व्यवहार में, वह पक्ष) जिस पर अपना कथन या मत प्रमाणित करने का भार हो।				 | 
			
			
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					साध्यवासना					 :
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					स्त्री० [सं०] साहित्य में, लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें स्वयं उपमान में उपमेय का अध्यवसाय या तादात्म्य किया जाता अर्थात् उपमेय को बिलकुल हटाकर केवल उपमान इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि उपमेय से उसका कोई अंतर या भेद नहीं रह जाता। जैसे—किसी परम मूर्ख विषय में कहना—यह तो गधा (या बैल) है। उदा०—अद्भुत् एक अनूप बाग। जुगल कमल पर गज क्रीडत है, तापर सिंह करत अनुराग।...फल पर पुहुप, पहुप पर पल्लव ता पर सुक, पिक, मृग-मद काग। इसमें केवल उपमानों का उल्लेख करके राधा के सब अंगों के सौंदर्य का वर्णन किया है।				 | 
			
			
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					साध्यसम					 :
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					पुं० [सं०] भारती नैयायिकों के अनुसार पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में से एक, जिसमें किसी हेतु को साध्य के ही समान सिद्ध करने की आवश्यकता होती है। जैसे—यदि कहा जाय ‘‘छाया भी द्रव्य है क्योंकि उसमें द्रव्यों के ही समान गति होती है।’’ तो यहाँ यह सिद्ध करना आवश्यक होगा कि स्वतः छाया में गति होती है।				 | 
			
			
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					साध्याभक्ति					 :
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					स्त्री०=परा-भक्ति। (देखें)				 | 
			
			
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