शब्द का अर्थ
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स्वर् :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. परलोक। ३. आकाश। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग :
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पुं० [सं०] [वि० स्वर्गीय] १. हिंदुओं के अनुसार ऊपर के सात लोकों में से तीसरा लोक, जिसका विस्तार सूर्यलोक से ध्रुवलोक तक कहा गया है और जिसमें ईश्वर तथा देवताओं का निवास माना गया है। यह भी माना जाता है कि पुण्यात्माओं और सत्कर्मियों की मृत्यु होने पर उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं। देवलोक। पद–स्वर्ग की धार=आकाश-गंगा। मंदाकिनी। मुहा०–स्वर्ग के पथ पर पैर रखना=(क) यह लोक छोड़कर परलोक के लिए प्रस्थान करना। मरना। (ख) जान जोखिम में डालना। स्वर्ग छना=स्वर्ग के सुख का इसी जीवन में अनुभव करना। उदा०–मदोन्मत्ता महर्षि-मुख देख थी स्वर्ग छूती।–हरिहौध। स्वर्ग जाना या सिधारना=परलोकगामी होना। मरना। २. अन्य धर्मों के अनुसार इसी प्रकार का वह विशिष्ट स्थान जो आकाश में माना जाता है। बिहिश्त (हेवेन)। विशेष–भिन्न-भिन्न धर्मों में स्वर्ग की कल्पना अलग-अलग प्रकार से की गई है। तो भी प्रायः सभी धर्मों के अनुसार इसमें ईश्वर, देवताओ, देवदूतों और पवित्र आत्माओं का निवास माना जाता है और यह सभी प्रकार के सुखों और सौन्दर्यों का भंडार कहा गया है। ३. बोल-चाल में पृथ्वी के ऊपर का वह सारा विस्तार, जिसमें सूर्य, चाँद, तारे, बादल आदि निकलते, डूबते या उठते-बैठते हैं। ४. कोई ऐसा स्थान, जहाँ सभी प्रकार के सुख प्राप्त हों और नाम को भी कोई कष्ट या चिंता न हो। जैसे–यहाँ तो हमें स्वर्ग जान पड़ता है। ५. आकाश। आसमान। पद–स्वर्ग-सुख=सभी प्रकार का बहुत अधिक सुख। मुहा०–(किसी चीज का) स्वर्ग छूना=बहुत अधिक ऊँचा होना। जैसे–वहाँ की अट्टालिकाएँ स्वर्ग छूती थीं। ६. ईश्वर। ७. सुख। ८. प्रलय।। |
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स्वर्ग काम :
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वि० [सं०] जो स्वर्ग की कामना रखता हो। स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाला। |
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स्वर्ग गमन :
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पुं० [सं०] स्वर्ग सिधारना। मरना। |
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स्वर्ग गिरि :
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पुं०=स्वर्णगिरि (सुमेरु पर्वत)। |
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स्वर्ग तरु :
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पुं० [सं०] १. कल्पतरु। २. पारिजात। परजाता। |
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स्वर्ग धेनु :
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स्त्री० [सं०] कामधेनु। |
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स्वर्ग नदी :
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स्त्री० [सं० स्वर्ग+नदी] आकाश गंगा। |
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स्वर्ग पति :
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पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। |
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स्वर्ग पुरी :
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स्त्री० [सं०] इन्द्र की पुरी, अमरावती। |
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स्वर्ग भूमि :
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स्त्री० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद जो वाराणसी के पश्चिम ओर था। २. ऐसा स्थान जहाँ स्वर्ग का-सा आनन्द और सुख हो। |
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स्वर्ग मंदाकिनी :
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स्त्री० [सं०] आकाशगंगा। मंदाकिनी। |
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स्वर्ग लोकेश :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। २. तन। शरीर। |
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स्वर्ग स्त्री :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्ग-गत :
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भू० कृ०, वि० [सं०] जो स्वर्ग चला गया हो। मरा हुआ। स्वर्गीय। |
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स्वर्ग-गति :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग जाना। मरना। |
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स्वर्ग-गामी (मिन्) :
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वि० [सं०] १. स्वर्ग की ओर गमन करनेवाला। स्वर्ग जानेवाला। २. जो स्वर्ग जा चुका अर्थात् मर चुका हो। मृत। स्वर्गीय। |
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स्वर्ग-तंरगिणी :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नदी, मंदाकिनी। आकाश-गंगा। |
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स्वर्ग-पताली :
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स्त्री० [सं० स्वर्ग+पाताल] ऐसा बैल जिसका एक सींग सींधा ऊपर को उठा हुआ और दूसरा सीधा नीचे की ओर झुका हुआ हो। |
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स्वर्ग-योनि :
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पुं० [सं०] यज्ञ, दान आदि वे शुभ कर्म, जिनके कारण मनुष्य स्वर्ग जाता है। |
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स्वर्ग-लाभ :
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पुं० [सं०] स्वर्ग की प्राप्ति।। स्वर्ग पहुँचाना। मरना। |
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स्वर्ग-लोक :
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पुं० दे० ‘स्वर्ग’। |
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स्वर्ग-वधू :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्ग-वाणी :
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स्त्री० [सं० स्वर्ग+वाणी] आकाशवाणी। |
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स्वर्गगा :
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स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी। |
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स्वर्गति :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग की ओर जाने की क्रिया। स्वर्ग-गमन। |
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स्वर्गद :
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वि० [सं०] जो स्वर्ग पहुँचाता हो। स्वर्ग देनेवाला। |
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स्वर्गदायक :
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वि०=स्वर्गद। |
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स्वर्गरूढ़ :
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भू० कृ०, वि० [सं०] स्वर्ग सिधारा हुआ। स्वर्ग पहुँचा हुआ। मृत। स्वर्गवासी। |
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स्वर्गरोहण :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग की ओर जाना या चढ़ना। २. मरकर स्वर्ग जाना। |
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स्वर्गवास :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग में निवास करना। स्वर्ग में रहना। २. मर कर स्वर्ग जाना। मरना। जैसे–आज उनका स्वर्गवास हो गया। |
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स्वर्गवास :
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पुं० [सं०]=स्वर्गवास। |
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स्वर्गवासी (सिन्) :
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वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गवासिनी] १. स्वर्ग में रहनेवाला। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय। |
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स्वर्गसार :
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पुं० [सं०] ताल के चौदह मुख्य भेदों में से एक। (संगीत) |
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स्वर्गस्थ :
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भू० कृ०, वि० [सं०] १. स्वर्ग में स्थित। स्वर्ग का। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय। |
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स्वर्गापगा :
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स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी। |
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स्वर्गामी (मिन्) :
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वि० [सं० स्वर्गमिन्]=स्वर्गगामी। |
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स्वर्गि-गिरि :
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पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत, जिसके श्रृंग पर स्वर्ग की स्थिति मानी जाती है। |
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स्वर्गिक :
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वि०=स्वर्गीय। |
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स्वर्गी (गिन्) :
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वि० [सं०]=स्वर्गीय। पुं० देवता। |
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स्वर्गीय :
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वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गीया] १. स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग का। २. स्वर्ग में रहने या होनेवाला। ३. जो मरकर स्वर्ग चला गया हो। (मृत व्यक्ति के लिए आदरसूचक) ४. जिसकी मृत्यु अभी हाल में अथवा कुछ ही दिन पहले हुई हो। (लेट) ५. जिसमें लौकिक पवित्रता या सौन्दर्य की पराकाष्ठा हो। दिव्य। जैसे—स्वर्गीय रूप। |
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स्वर्ग्य :
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वि० [सं०] स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग तक पहुँचानेवाला। |
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स्वर्चन :
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पुं० [सं०] ऐसी अग्नि जिसमें से सुन्दर ज्वाला निकलती हो। |
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स्वर्जि :
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स्त्री० [सं०] १. सज्जी मिट्टी। २. शोरा। |
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स्वर्जिक :
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पुं० [सं०] सज्जी मिट्टी। |
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स्वर्जिकाक्षार :
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पुं० [सं०] जिसने स्वर्ग पर विजय प्राप्त कर ली हो। स्वर्गजेता। पुं० एक प्रकार का यज्ञ। |
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स्वर्ण :
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पुं० [सं०] १. सुवर्ण या सोना नामक बहुमूल्य धातु। कनक। २. धतूरा। ३. नाग केसर। ४. गौर स्वर्ण नामक साग। ५. कामरूप देश की एक नदी। वि० सोने की तरह का पीला। |
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स्वर्ण ग्रीवा :
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स्त्री० [सं०] कालिका पुराण के अनुसार एक पवित्र नदी जो नाटक शैल के पूर्वी भाग से निकली हुई मानी गई है। |
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स्वर्ण नाभ :
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पुं० [सं०] एक प्रकार के शालग्राम। |
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स्वर्ण पत्र :
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पुं० [सं०] सोने का पत्तर या तबक। |
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स्वर्ण पाटक :
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पुं० [सं०] सुहागा जिसके मिलाने से सोना गल जाता है। |
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स्वर्ण फला :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ण कपाली। चंपा केला। |
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स्वर्ण मय :
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वि० [सं०] १. स्वर्ण से युक्ति। २. जो बिलकुल सोने का हो। जैसे–स्वर्णमय सिंहासन। |
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स्वर्ण मानक :
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पुं०=स्वर्णमान। |
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स्वर्ण मीन :
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पुं० [सं०] सुनहले रंग की एक प्रकार की मछली। |
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स्वर्ण लता :
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स्त्री० [सं०] १. मालकंगनी। ज्योतिष्मती। २. पीली जीवंती। |
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स्वर्ण वर्णा :
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स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. दारुहलदी। |
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स्वर्ण वल्ली :
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स्त्री० [सं०] १. सोनावल्ली। रक्तफला। २. पीली जीवंती। |
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स्वर्ण शिख :
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पुं० [सं०] स्वर्णचूड़ या नीलकंठ नामक पक्षी। |
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स्वर्ण-कूट :
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पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटी। |
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स्वर्ण-केतकी :
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स्त्री० [सं०] पीली केतकी। |
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स्वर्ण-गिरि :
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पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत। |
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स्वर्ण-गैरिक :
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पुं० [सं०] सोनोगेरू। |
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स्वर्ण-चूड़, स्वर्ण-चूल :
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पुं० [सं०] नीलकंठ नामक पक्षी। |
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स्वर्ण-जयंती :
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स्त्री० [सं०] किसी व्यक्ति, संस्था आदि या किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के जन्म या आरम्भ होने के ५0 वर्ष पूरा होने पर होनेवाली जयंती (गोल्डेन जुबली)। |
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स्वर्ण-द्वीप :
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पुं० [सं०] आधुनिक सुमात्रा द्वीप का मध्ययुगीन नाम। |
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स्वर्ण-पर्पटी :
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स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रसिद्ध औषध, जो संग्रहणी रोग के लिए सबसे अधिक गुणकारी मानी जाती है। |
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स्वर्ण-पुष्प :
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पुं० [सं०] १. अमलतास। २. चंपा। ३. कीकर। बबूल। ४. कैथ। ५. पेठा। |
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स्वर्ण-पुष्पा :
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स्त्री० [सं०] १. कलिहारी। लागली। २. सातला नामक थूहर। ३. मेढ़ा-सिंगी। ४. अमलतास। ५. पीली केतकी। |
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स्वर्ण-पुष्पी :
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स्त्री० [सं०] १. स्वर्ण-केतकी। पीला केवड़ा। २. अमलतास। ३. सातला। |
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स्वर्ण-प्रस्थ :
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पुं० [सं०] पुराणानुसार जंबू द्वीप का एक उपद्वीप। |
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स्वर्ण-फल :
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पुं० [सं०] धतूरा। |
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स्वर्ण-बीज :
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पुं० [सं०] धतूरे का बीज। |
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स्वर्ण-भाज :
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पुं० [सं०] सूर्य। |
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स्वर्ण-माक्षिक :
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पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु। |
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स्वर्ण-माता :
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स्त्री० [सं० स्वर्णमातृ] हिमालय की एक छोटी नदी। |
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स्वर्ण-मान :
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पुं० [सं०] अर्थशास्त्र में, सिक्कों के संबंध की वह प्रणाली जिसमें कोई देश अपनी मुद्रा की इकाई या मानक का अर्ध सोने की एक निश्चित तौल के अर्ध के बराबर रखता है। (गोल्ड स्टैन्डर्ड) विशेष–जिस देश में यह प्रणाली प्रचलित रहती है, वहाँ (क) या तो सोने के ही सिक्के चलते हैं या (ख) ऐसी मुद्रा चलती है, जो तत्काल सोने के सिक्कों में बदली जा सकती है या (ग) लोग अपना सोना देकर टकसाल से उसके सिक्के ढलवा सकते हैं। |
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स्वर्ण-मुखी (खिन्) :
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स्त्री० [सं०] १. मध्ययुग में, 6४ हाथ लंबी, ३२ हाथ ऊँची और ३२ हाथ चौड़ी नाव। २. सनाय। |
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स्वर्ण-मुद्रा :
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स्त्री० [सं०] सोने का सिक्का। अशरफी। |
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स्वर्ण-यूथिक, स्वर्ण-यूथी :
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स्त्री० [सं०] पीली जूही। सोनजूही। |
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स्वर्ण-रंभा :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ण कदली। चंपा केला। |
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स्वर्ण-रस :
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पुं० [सं०] १. मध्यकालीन तांत्रिकों और रासायनिकों की परिभाषा में ऐसा रस, जिसके स्पर्श से कोई धातु सोना बन जाता हो या बन सकती हो। २. परवर्ती रहस्यवादी साधकों या संप्रदायों में वह क्रिया या तत्त्व, जिसमें मन की चंचलता नष्ट होती हो और वह पूर्ण रूप से शांत हो जाता हो। |
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स्वर्ण-रेखा :
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स्त्री०=सुवर्ण-रेखा (नदी)। |
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स्वर्ण-वज्र :
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पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहा। |
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स्वर्ण-वर्ण :
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पुं० [सं०] १. कण-गुग्गल। २. हरताल। ३. सोना गेरू। ४. दारुहलदी। |
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स्वर्ण-विंदु :
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पुं० [सं०] १. विष्णु। २. एक प्राचीन तीर्थ। |
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स्वर्ण-श्रृंगी (गित्) :
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पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत जो सुमेरु पर्वत के उत्तर ओर माना जाता है। |
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स्वर्ण-सिंदूर :
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पुं०=रस-सिंदूर। |
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स्वर्णकर्ष :
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पुं० [सं०] सोने की एक प्राचीन तौल जो किसी के मत से दश माशे की और किसी के मत से सोलह माशे की होती थी। |
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स्वर्णकाय :
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वि० [सं०] जिसका शरीर सोने का अथवा सोने का-सा हो। पुं० गरुड़। |
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स्वर्णकार :
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पुं० [सं०] १. एक जाति जो सोने-चाँदी के आभूषण आदि बनाती है। २. सुनार। |
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स्वर्णकारी :
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स्त्री० [हिं० स्वर्णकार] सोने-चाँदी के गहने आदि बनाने का व्यवसाय। सुनारी। |
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स्वर्णज :
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वि० [सं०] १. सोने से उत्पन्न। २. सोने का बना हुआ। पुं० १. राँगा वंग। २. सोनामक्खी। |
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स्वर्णजीवी (विन्) :
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पुं० [सं०] स्वर्णकार। सुनार। |
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स्वर्णद :
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वि० [सं०] १. स्वर्ण या सोना देनेवाला। २. स्वर्ण या सोना दान करनेवाला। |
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स्वर्णदी :
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स्त्री० [सं०] १. मंदाकिनी। स्वर्गंगा। २. कामाख्या के पास की एक नदी। |
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स्वर्णाकर :
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पुं० [सं०] सोने की खान। |
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स्वर्णाचल :
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पुं० [सं०] उड़ीसा प्रदेश का भुवनेश्वर नामक तीर्थ। |
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स्वर्णाद्रि :
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पुं० [सं०]=स्वर्णाचल। |
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स्वर्णाभ :
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वि० [सं०] १. सोने की सी आभा या चमकवाला। २. सोने के रंग का। सुनहला। ३. (प्रतिभूति) जो सब प्रकार से सुरक्षित हो और जिसके डूबने या व्यर्थ होने की कोई आशंका न हो। (गिल्टएज्ड) पुं० हरताल। |
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स्वर्णारि :
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पुं० [सं०] १. गंधक। २. सीमा नामक धातु। |
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स्वर्णिम :
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वि० [सं०] सोने का। सुनहला। |
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स्वर्णुली :
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स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप। हेमपुष्पी। सोनुली। |
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स्वर्णोपधातु :
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पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु। |
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स्वर्धनी :
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स्त्री० [सं०] गंगा। |
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स्वर्नगरी :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग की पुरी, अमरावती। |
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स्वर्नदी :
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स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। |
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स्वर्पति :
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पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। |
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स्वर्भानु :
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पुं० [सं०] १. सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। २. राहु नामक ग्रह। |
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स्वर्लोक :
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पुं० [सं०] स्वर्ग। |
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स्वर्वधू :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्वापी :
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स्त्री० [सं०] गंगा। |
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स्वर्वेश्या :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्वैद्य :
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पुं० [सं०] स्वर्ग के वैद्य, अश्विनीकुमार। |
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